Bihar Board Class 10 Science Subjective Chapter 6 जैव प्रक्रम

 

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रकाश-संश्लेषण किसे कहते हैं? प्रकाश-संश्लेषण के लिए आवश्यक विभिन्न घटकों के नाम लिखिए। (2013, 14, 15, 17)
या प्रकाश-संश्लेषण की परिभाषा लिखिए तथा इस क्रिया की रासायनिक अभिक्रिया का समीकरण बताइए। (2016, 17)
उत्तर:
प्रकाश-संश्लेषण, वह उपचायक क्रिया है जिसके द्वारा अकार्बनिक सरल यौगिकों, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड को प्रकाशीय ऊर्जा के द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स के रूप में बदल दिया जाता है। प्रकाशीय ऊर्जा का उपयोग पर्णहरित (chlorophyll) की उपस्थिति में किया जाता है तथा इसमें ऑक्सीजन उप-उत्पाद के रूप में निकलती है।
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विभिन्न घटक प्रकाश-संश्लेषण के लिए निम्न पदार्थ अति आवश्यक हैं –

  1. सूर्य का प्रकाश
  2. कार्बन डाइऑक्साइड
  3. जल
  4. क्लोरोफिल

प्रश्न 2.
मनुष्य के दाँतों की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। (2010)
उत्तर:
मनुष्य के 32 दाँत होते हैं तथा इनकी निम्नलिखित दो विशेषतायें होती हैं –
1. ये गर्तदन्ती (thecodont) अर्थात् अस्थियों के गर्त में फँसे होते हैं।
2. मनुष्य के जीवन में दो बार दाँत निकलते हैं अर्थात् ये द्विबारदन्ती (diphyodont) होते हैं।

प्रश्न 3.
मनुष्य के प्रत्येक जबड़े में अग्रचर्वणक दाँतों की संख्या बताइए तथा इनके कार्य लिखिए। (2012, 18)
उत्तर:
प्रत्येक जबड़े में अग्रचर्वणक दाँतों की संख्या दो जोड़ी होती है। ये भोजन को कुंचने या चबाने का कार्य करते हैं।

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प्रश्न 4.
आहारनली के विभिन्न भागों के नाम लिखिए। (2015)
उत्तर:
आहारनली के विभिन्न भाग निम्नलिखित हैं –

  1. मुख व मुखगुहा
  2. ग्रसनी
  3. ग्रासनली
  4. आमाशय तथा
  5. आँत।

प्रश्न 5.
रसांकुर (villi) कहाँ स्थित होते हैं? इनका क्या महत्त्व है?
या रसांकुर का प्रमुख कार्य लिखिए।
उत्तर:
रसांकुर छोटी आंत में, विशेषकर शेषान्त्र (ilium) में पाये जाते हैं। ये आन्त्र के अवशोषण तल को अत्यधिक (लगभग 10 गुना) बढ़ा देते हैं। इस प्रकार ये पचे हुए भोजन के अवयवों के अधिक अवशोषण में सहायता करते हैं।

प्रश्न 6.
क्रमाकुंचन से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए। (2011)
उत्तर:
भोजन को आहार नाल में आगे बढ़ाने के लिए क्रमाकुंचन नामक एक विशेष प्रकार की गति होती है जिससे भोजन पाचक रस के साथ अच्छी तरह मिल जाता है।

प्रश्न 7.
अवशोषण तथा स्वांगीकरण में क्या अन्तर है? (2016)
उत्तर:
आहारनाल में पचित भोजन के अणुओं के विसरित होकर रुधिर में पहुँचने की क्रिया को अवशोषण कहते हैं। जबकि पचे हुए भोजन को अवशोषित कर कोशिका के जीवद्रव्य तक पहुँचाने के बाद भोजन के तत्त्वों को कोशिका में जीवद्रव्य के स्वरूप में विलीन होने की क्रिया को स्वांगीकरण (assimilation) कहते हैं।

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प्रश्न 8.
विटामिन ‘डी’ (D) की कमी से होने वाले दो रोगों के नाम लिखिए।
उत्तर:
विटामिन ‘डी’ (D) की कमी से होने वाले दो रोग निम्नांकित हैं –
1. सूखा रोग या रिकेट्स (rickets)
2. मृदुलास्थिरोग या ऑस्टोमैलेशिया (osteomalacia)।

प्रश्न 9.
प्रोटीन्स क्या है? इनका निर्माण किन-किन अवयवों के भाग लेने से होता है। (2014)
उत्तर:
प्रोटीन की रचना जटिल होती है। ये जीवित शरीर का 14% भाग बनाती हैं। ये सामान्यतः कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के संयोग से बनी होती हैं। इसके अतिरिक्त गन्धक, फॉस्फोरस, आयोडीन तथा लोहा आदि भी इनमें आंशिक रूप से उपस्थित होते हैं। इनकी संयोजन इकाइयाँ अमीनो अम्ल होते हैं।

प्रश्न 10.
विटामिन ‘ए’ (A) की कमी से कौन-सा रोग हो जाता है? इसके भोज्य स्रोतों को लिखिए। (2009)
उत्तर:
विटामिन ‘A’ की कमी से रतौंधी (night blindness) नामक रोग हो जाता है। इसके भोज्य स्रोत गाजर, हरी सब्जियाँ, घी, मक्खन, अण्डे, मछली का तेल आदि हैं।

प्रश्न 11.
कौन-सा एन्जाइम प्रोटीन पाचन में सहायक है? (2010)
या किन्हीं दो प्रोटीन पाचक एन्जाइमों के नाम लिखिए। (2009)
उत्तर:
आमाशय के जठर रस में (अम्लीय माध्यम में) पेप्सिन (pepsin) तथा अग्न्याशयिक रस में (क्षारीय माध्यम में) ट्रिप्सिन (trypsin) प्रोटीन पाचन में सहायक हैं।

प्रश्न 12.
सन्तुलित आहार से क्या आशय है? (2017)
उत्तर:
सन्तुलित आहार वह आहार है जिसमें शरीर की वृद्धि, विकास कार्य तथा स्वास्थ्य संरक्षण के लिए सभी आवश्यक तत्त्व विद्यमान हैं। ये तत्त्व उसमें मात्रा व गुणों में सन्तुलित रूप में पाये जाते हैं।

प्रश्न 13.
सन्तुलित भोजन को निर्धारित करने वाले चार मुख्य कारकों के नाम बताइए। (2017)
उत्तर:

  1. व्यक्ति की आयु
  2. लिंग
  3. व्यक्ति के शरीर का आकार
  4. जलवायु तथा
  5. शारीरिक श्रम।

प्रश्न 14.
अन्तर नासिका पट किसे कहते हैं? उसका क्या कार्य है? (2013)
उत्तर:
चेहरे पर स्थित नासिका दो बाह्य नासा छिद्रों के द्वारा बाहर खुलती है। नासिका के मध्य एक नासा पट होता है, इसे अन्तर नासिका पट कहते हैं। इससे नासा गुहा दो भागों में बँट जाती है।

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प्रश्न 15.
NADP का पूरा नाम लिखिए। (2010, 12)
उत्तर:
NADP = निकोटिनैमाइड एडीनीन डाइ न्यूक्लियोटाइड फॉस्फेट (nicotinamide adenine dinucleotide phosphate)

प्रश्न 16.
ए०टी०पी० तथा ए०डी०पी० का पूरा नाम लिखिए। (2012)
उत्तर:
ए०टी०पी० (ATP) = एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट; ए०डी०पी० (ADP) = एडीनोसीन डाइफॉस्फेट।

प्रश्न 17.
श्वसन को परिभाषित कीजिए। (2012, 13, 15, 16)
उत्तर:
श्वसन वह क्रिया है जिसमें कोशिका के अन्दर कार्बनिक यौगिकों; प्राय: ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होता है। इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस ऊर्जा को विशेष ATP अणुओं में विभवीय ऊर्जा के रूप में संचित किया जाता है।
C6H12O6 + 6O2 → 6CO2 + 6H2O + 673 किलो केलोरी

प्रश्न 18.
एक ग्लूकोज अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण से ए०टी०पी० के कितने अणु प्राप्त होते हैं? (2010)
उत्तर:
एक अणु ग्लूकोज (C6H12O6) के पूर्ण ऑक्सीकरण से कुल 38 ए०टी०पी० अणु बनते

प्रश्न 19.
रुधिर का रंग लाल क्यों होता है?
उत्तर:
रुधिर में उपस्थित ऑक्सीजन युक्त हीमोग्लोबिन के कारण शुद्ध रुधिर का रंग लाल दिखाई देता है।

प्रश्न 20.
हृदयावरणी (pericardial) तरल पदार्थ कहाँ पाया जाता है? इसका महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
हृदयावरणी तरल पदार्थ हृदय तथा हृदयावरण के चारों ओर तथा दोनों हृदयावरणी परतों के मध्य पाया जाता है। यह हृदय की बाहरी आघातों से सुरक्षा करता है तथा हृदय को मुलायम व नम बनाये रखता है।

प्रश्न 21.
रुधिर में एन्टीजन एवं एण्टीबॉडी कहाँ पाये जाते हैं? (2013, 17)
उत्तर:
एण्टीजन लाल रुधिर कणिकाओं में तथा एण्टीबॉडी प्लाज्मा में पाये जाते हैं।

प्रश्न 22.
रुधिर की कौन-सी कोशिकाएँ ऑक्सीजन परिवहन में भाग लेती हैं?
उत्तर:
रुधिर की लाल रुधिर कोशिकाएँ या कणिकाएँ (RBCs = red blood corpuscles or erythrocytes) ऑक्सीजन के परिवहन में भाग लेती हैं।

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प्रश्न 23.
कौन-सी शिरा हृदय में ऑक्सीकृत रुधिर लाती है? या किस शिरा में शद्ध रुधिर पाया जाता है? (2009)
उत्तर:
फुफ्फुस शिराओं में शुद्ध रुधिर (ऑक्सीजन युक्त) पाया जाता है। ये हृदय में रुधिर ले जाती

प्रश्न 24.
पल्मोनरी धमनी में किस प्रकार का रुधिर पाया जाता है और क्यों? (2009, 17)
उत्तर:
पल्मोनरी धमनी हृदय से रुधिर फेफड़ों में ले जाती है अत: इसमें अशुद्ध (ऑक्सीजन विहीन) रुधिर होता है।

प्रश्न 25.
रुधिर दाब किसे कहते हैं? (2012)
उत्तर:
रुधिर दाब वह दाब है जो बायें निलय के संकुचन से मुक्त रुधिर द्वारा वाहिनियों की भित्ति पर लगाया जाता है। धमनियों में यह अधिक होता है तथा धीरे-धीरे केशिकाओं में रुधिर के पहुंचने पर कम होने लगता है तथा शिराओं में सबसे कम होता है। रुधिर दाब के कारण ही धमनियों से रुधिर केशिकाओं के द्वारा शिराओं तक पहुँचता है।

प्रश्न 26.
परासरण किसे कहते हैं? (2013)
उत्तर:
परासरण एक विशेष प्रकार की विसरण क्रिया है जिसमें दो विलयनों (घोलों) का विलायक एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली के आर-पार आता-जाता है। इस क्रिया में दो अनुक्रियायें सम्मिलित हैं –
1. अन्तःपरासरण (endosmosis) जिसमें तनु घोल से सान्द्र घोल की ओर होने वाला विसरण तथा
2. बहि:परासरण (exosmosis) जिसमें सान्द्र विलयन से तनु विलयन की ओर विसरण होता है।

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प्रश्न 27.
जाइलम तथा फ्लोएम में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2014, 16)
या पादपों में जल एवं खनिज तथा खाद्य उत्पादों के संवहन हेतु पायी जाने वाली वाहिकाओं के नाम बताइए। (2016)
उत्तर:
जाइलम ऊतक पौधों में जल स्थानान्तरित करता है जबकि पौधों में भोजन का स्थानान्तरण फ्लोएम ऊतकों द्वारा होता है।

प्रश्न 28.
मूलदाब की परिभाषा दीजिए। (2012)
उत्तर:
मूलदाब वह दाब है जो जड़ों की कॉर्टेक्स कोशिकाओं द्वारा पूर्ण स्फीत अवस्था में उत्पन्न होता है जिसके फलस्वरूप कोशिकाओं में एकत्रित जल न केवल जाइलम में पहुँचता है बल्कि तने में भी कुछ ऊँचाई तक चढ़ जाता है।

प्रश्न 29.
वह कौन-सी कार्यिकी की क्रिया है जिसके द्वारा हरे पौधों की वायवीय सतह से पानी का वाष्पीकरण होता है? (2011)
उत्तर:
वाष्पोत्सर्जन।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नामांकित चित्र की सहायता से दिखाइए कि प्रकाश-संश्लेषण के लिए क्लोरोफिल आवश्यक है। (2016)
उत्तर:
इस प्रयोग को करने के लिए क्रोटॉन (Croton), कोलियस (Coleus) या अन्य कोई चित्तीदार पत्तियों का पौधा लेते हैं जिसकी पत्तियों पर हरे रंग के केवल धब्बे होते हैं अर्थात् केवल इन्हीं स्थानों के अन्दर पर्णहरित (chlorophyll) होता है। इसको अन्धकार में रखकर (लगभग 24 घण्टे) मण्डरहित कर लेते हैं।

कुछ समय (लगभग 4-5 घण्टे) सूर्य के प्रकाश में रखने के बाद यदि आप पौधे की एक पत्ती का मण्ड परीक्षण करेंगे तो केवल उन्हीं स्थानों में मण्ड बना मिलेगा जिन स्थानों पर हरा रंग था। क्लोरोफिल युक्त स्थानों को मण्ड परीक्षण से पूर्व ही चिह्नित कर देते हैं (चित्र देखें)। यह प्रयोग सिद्ध करता है कि क्लोरोफिल के बिना मण्ड नहीं बनता अर्थात् प्रकाश-संश्लेषण नहीं होता है।
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प्रश्न 2.
प्रयोगों द्वारा सिद्ध कीजिए कि प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रकाश एवं कार्बन डाइऑक्साइड आवश्यक है। (2013, 14, 15, 17, 18)
या प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में CO2 का क्या महत्त्व है? प्रयोग द्वारा स्पष्ट करें। (2014, 17)
उत्तर:
प्रकाश की आवश्यकता का प्रदर्शन –
किसी गमले में लगे पौधे को (जिसकी पत्तियाँ मोटी न हों) अन्धकार में 48-72 घण्टे रखने से पत्तियों का सम्पूर्ण मण्ड घुलकर दूसरे अंगों में चला जाता है। ऐसी पत्तियाँ मण्ड रहित कहलाती हैं।
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गमले में लगी किसी मण्डरहित पत्ती (एक अन्य पत्ती का मण्ड परीक्षण करने से ज्ञात होगा कि पत्तियाँ मण्डरहित हो गई हैं) की दोनों सतहों पर एक-एक काले कागज का टुकड़ा, पेपर क्लिप की सहायता से स्लाइड के नीचे लगाया जाता है (देखें चित्र)। ऊपर के कागज पर कोई भी अक्षर या अन्य चित्र काटकर बनाया जा सकता है।

कुछ समय (4-5 घण्टे) उपकरण को धूप में रख देते हैं। बाद में उपर्युक्त पत्ती का मण्ड परीक्षण करते हैं। यह अक्षर या चित्र नीले या काले रंग में छप जाता है क्योंकि इन स्थानों पर प्रकाश मिला था तथा मण्ड बना है। इस प्रयोग में काले कागज के स्थान पर फोटोग्राफी की नेगेटिव प्लेट भी प्रयोग में ला सकते हैं, वैसा ही चित्र, पोजिटिव प्रिण्ट या स्टार्च प्रिण्ट के रूप में मण्ड से छप जायेगा।

कार्बन डाइऑक्साइड गैस की आवश्यकता का प्रदर्शन –
एक चौड़े मुँह की बोतल रबर के कॉर्क के साथ लेते हैं। कॉर्क को दो अर्धांशों में लम्बाई में काट देते हैं। एक मण्ड रहित पत्ती को पौधे पर लगी हुई अवस्था में ही (अथवा तोड़कर) आधा बोतल के अन्दर तथा आधा बाहर (कॉर्क की सहायता से) लगाकर, कुछ समय के लिए उपकरण को धूप में छोड़ देते हैं। पौधे से पत्ती को अलग किया गया है तो उसके वृन्त को जल में डुबाकर रखना चाहिए। बोतल में पहले से ही पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड (KOH) विलयन रखा जाता है जो बोतल के अन्दर की वायु से CO2 को अवशोषित कर लेता है।
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प्रयोग-प्रयोग विधि। प्रयोग में लायी गई पत्ती को पौधे से अलग करके मण्ड परीक्षण करने पर पता लगता है कि बोतल के अन्दर रहे भाग में कोई मण्ड नहीं बना (यह भाग नीला या काला नहीं होता) जबकि बोतल के बाहर रहे भाग में मण्ड बना है। अत: सिद्ध होता है कि बिना कार्बन डाइऑक्साइड के प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है।

प्रश्न 3.
प्रकाश-संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए। (2012, 14)
उत्तर:
प्रकाश-संश्लेषण की दर अनेक बाह्य तथा अन्तः कारकों से प्रभावित होती है। ये कारक निम्नलिखित हैं बाह्य कारक प्रकाश, ताप, वायु, जल, प्राप्त खनिज। अन्तः कारक पत्ती की संरचना, स्टोमेटा की स्थिति, संरचना संख्या एवं वितरण तथा पेलिसेड कोशिकाओं में पर्णहरित की मात्रा।

प्रश्न 4.
प्रकाश-संश्लेषण की उपयोगिता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर:
1. भोज्य पदार्थों का उत्पादन: (Production of food) प्रत्येक प्रकार के खाद्य पदार्थों (कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन व वसाएँ) के निर्माण का आधार ही प्रकाश-संश्लेषण है। पौधे अपने लिए इन खाद्य पदार्थों को इसी क्रिया के द्वारा बड़े पैमाने पर बनाते हैं। यही पौधे समस्त जीवों के लिए आवश्यक क्रियाओं में भी काम आते हैं। अन्य सभी जीव अपना भोजन इन्हीं पौधों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्राप्त करते हैं।

आपको पहले बताया गया है कि हरे पौधे, जो प्रकाश-संश्लेषक हैं, इसीलिए उत्पादक (producers) तथा शेष सभी जीव उपभोक्ता (consumers) कहलाते हैं। वास्तव में सम्पूर्ण पृथ्वी पर समस्त जीवन ही इस क्रिया पर निर्भर करता है। इस क्रिया में ही सूर्य की विकिरण ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा के रूप में, भोज्य पदार्थों में एकत्रित हो जाती है जो प्रत्येक जीव के लिए आवश्यक है।

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2. ऊर्जा का स्त्रोत: (Source of energy) सजीवों, जिनमें पौधे भी सम्मिलित हैं, के लिए पौधों द्वारा निर्मित भोजन ही ऊर्जा का स्रोत है। शरीर को चलाने के लिये आवश्यक ऊर्जा भोजन से ही मिलती है। कोयला, तेल (पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल आदि), गैसें आदि ईंधन भी तो भूगर्भ में पुरातन काल में संचित स्रोत हैं जो पौधों के द्वारा प्रतिपादित इसी क्रिया में बने थे। आज इन्हीं को हम ऊर्जा के रूप में प्रयोग में लाते हैं। जन्तुओं तथा पौधों के मध्य, प्रकृति में, पदार्थों का चक्रीय उपभोग चलता रहता है तथा इसी से सन्तुलन बना रहता है।

3. वायुमण्डल का नियन्त्रण, शुद्धिकरण तथा जैव सन्तुलन: (Control, purification of atmosphere and biotic balance) प्रकाश-संश्लेषण, वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड तथा ऑक्सीजन गैसों के अनुपात को नियन्त्रित करता है। सभी जीव श्वसन के लिए ऑक्सीजन काम में लाते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल में डालते हैं। अत: दोनों प्रकार से ही वायुमण्डल अशुद्ध होता है। प्रकाश-संश्लेषण क्रिया ही बढ़ी हुई कार्बन डाइऑक्साइड के अनुपात को कम और गिरे हुए ऑक्सीजन अनुपात को अधिक करती है। इस प्रकार जैवीय सन्तुलन बना रहता है।

4. अन्तरिक्ष यात्रा में: (In space travel) अन्तरिक्ष यात्रा के लिए ऑक्सीजन तथा भोजन दोनों की उपलब्धि प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा प्राप्त करने के प्रयास किये गये हैं। इन प्रयासों में काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई है। क्लोरेला (Chlorella) जैसे शैवालों इत्यादि को उगाकर इस समस्या को हल किया जा रहा है। उपर्युक्त के आधार पर प्रकाश-संश्लेषण पृथ्वी पर जीवन को चलाये रखने के लिए एक अतिमहत्त्वपूर्ण क्रिया है।

प्रश्न 5.
मनुष्य के पाचनतन्त्र का नामांकित चित्र बनाइये।(वर्णन की आवश्यकता नहीं है।) (2012, 16, 18)
उत्तर:
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प्रश्न 6.
मनुष्य में पाए जाने वाले दाँतों के प्रकार तथा उनके कार्यों का वर्णन कीजिए। (2016)
उत्तर:
एक वयस्क व्यक्ति में निचले तथा ऊपरी जबड़े में कुल मिलाकर 32 दाँत (teeth) होते हैं। मनुष्य के जीवन में दो बार दाँत निकलते हैं अत: इसे द्विबारदन्ती (diphyodont) कहते हैं। दाँतों की संख्या उम्र के साथ बदलती रहती है। इस प्रकार आयु के आधार पर दाँत दो प्रकार के होते हैं –
1. अस्थायी दाँत:
इन्हें दूध के दाँत भी कहते हैं। ये बच्चे में लगभग 6 माह से निकलने प्रारम्भ हो जाते हैं और 2-3 वर्ष तक कुल 20 निकलते हैं। ये 7-8 वर्ष की अवस्था तक रहते हैं।

2. स्थायी दाँत:
ये दूध के दाँतों के गिरने पर निकलते हैं तथा लगभग 20 वर्ष की आयु तक 28 दाँत निकल आते हैं। बाद में, चार और दाँत निकलते हैं। इन्हें अक्ल दाढ़ कहते हैं। स्थायी दाँतों की कुल संख्या 32 होती है। दोनों जबड़ों में स्थायी दाँत निम्नांकित चार प्रकार के होते हैं –

  • कृन्तक: (incisors) ये संख्या में कुल आठ होते हैं। इनके किनारे तेज धार वाले होते हैं, जो भोजन को कुतरने का कार्य करते हैं।
  • रदनक: (canine) इन्हें भेदक भी कहते हैं। इनकी संख्या चार होती है। कुछ लम्बे व नुकीले होने के कारण ये भोजन को चीरने-फाड़ने का कार्य करते हैं।
  • अग्रचर्वणक: (premolars) प्रत्येक जबड़े में दो जोड़ी होते हैं। इनके सिरे पर दो शिखर होते हैं, जो चपटे एवं चौकोर होते हैं। ये भोजन को कुचलने का कार्य करते हैं।
  • चर्वणक: (molars) प्रत्येक जबड़े में तीन जोड़ी अर्थात् कुल बारह होते हैं। इनके सिरे चौरस, तेज धार वाले होते हैं। ये भोजन को पीसते हैं।

प्रश्न 7.
जीभ पाचन तन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। स्पष्ट कीजिए। (2011)
उत्तर:
मुखगुहा के फर्श पर जीभ होती है जो भोजन का स्वाद चखती है, भोजन चबाते समय उसको उलटती-पलटती रहती है, उसमें लार को मिलाने में सहायता करती है और चबाये गये भोजन को निगलने में मदद करती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जीभ पाचन-तन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

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प्रश्न 8.
मनुष्य के शरीर में पाई जाने वाली लार ग्रन्थियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (2017)
उत्तर:
मुखगुहा में अनेक छोटी-छोटी (सूक्ष्म) मुख ग्रन्थियाँ (buccal glands) उसकी श्लेष्मिका में होती हैं जो थोड़ी मात्रा में लार (saliva) स्रावित करती रहती हैं। जिह्वा की श्लेष्मिका में भी इसी प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ होती हैं। बड़ी तथा अधिक मात्रा में लार उत्पन्न करने वाली तथा वाहिकाओं द्वारा इसे मुखगुहा में पहुँचाने वाली निम्नलिखित तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ होती हैं।

  1. कर्णपूर्व लार ग्रन्थियाँ:
    (parotid salivary glands) कानों के पास, कपोलों के पास व कपोलों में स्थित, ये सबसे बड़ी लार ग्रन्थियाँ होती हैं तथा ऊपरी जबड़े में वाहिकाओं, स्टेन्सेन्स नलिका (Stensen’s ducts) द्वारा चर्वणकों के पास खुलती हैं।
  2. अधोजिह्वा लार ग्रन्थियाँ:
    (sublingual salivary glands) जीभ के ठीक नीचे स्थित छोटी व संकरी ग्रन्थियाँ होती हैं और निचले जबड़े में दाँतों के पास ही कई स्थानों पर खुलती हैं।
  3. अधोहन लार ग्रन्थियाँ:
    (submaxillary salivary glands) निचले जबड़े के पश्च भाग में स्थित होती हैं। ये अगले दाँतों (निचले कृन्तकों) के पास लम्बी वाहिनियों, वारटन्स नलिकाओं (Wharton’s ducts) के द्वारा खुलती हैं।
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प्रश्न 9.
आमाशय किसे कहते हैं? उसके तीन प्रमुख कार्य लिखिए। (2014)
उत्तर:
आमाशय उदर गुहा में अनुप्रस्थ अवस्था में स्थित एक मशक के समान रचना है। यह आहारनाल का सबसे चौड़ा भाग है जिसकी लम्बाई लगभग 24 सेमी तथा चौड़ाई 10 सेमी होती है। आमाशय के कार्य

  1. भोजन का संग्रह
  2. भोजन को पतला लेई जैसा बनाना
  3. भोजन का पाचन।

प्रश्न 10.
यकृत के प्रमुख कार्य बताइये। (2018)
या मानव शरीर में पायी जाने वाली सबसे बड़ी ग्रन्थि कौन-सी है? उसके कार्य का वर्णन कीजिए। (2011, 12)
या यकृत क्या है? इसके तीन मुख्य कार्य बताइए। (2013)
उत्तर:
मानव शरीर में सबसे बड़ी ग्रन्थि यकृत है। यकृत के कार्य

  1. यकृत कोशिकाएँ हिपेरिन नामक पदार्थ का स्राव करती हैं जो रुधिर वाहिनियों में रुधिर को जमने से रोकता है।
  2. आमाशयिक रस के अम्ल को प्रभावहीन करने के लिए यह पित्त बनाता है और भोजन को क्षारीय बनाता है।
  3. यह पचे हुए अवशोषित प्रोटीन को पेप्टोन तथा अमीनो अम्ल के रूप में। संचित रखता है।
  4. यकृत द्वारा निर्मित पित्त रस वसा का पायसीकरण करता है।
  5. यकृत शरीर के संचरण का 13 रुधिर संचरित करता है।
  6. यह रुधिर के निर्माण में भी सहायता करता है क्योंकि यकृत के अन्दर लाल रुधिर कणों का संचय, निर्माण व टूट-फूट आदि कार्य होते हैं।
  7. रुधिर में फाइब्रिनोजन का निर्माण होता है जो रुधिर को जमाने में सहायता देता है।
  8. यकृत शरीर का भण्डार गृह है। जब पाचन के बाद रुधिर में आवश्यकता से अधिक ग्लूकोज पहुँचता है तो वह यकृत कोशिकाओं में ग्लाइकोजन के रूप में संग्रहित हो जाता है।
  9. छोटी आँत, ग्रहणी तथा आमाशय में प्रोटीन के पाचन में बने अमीनो अम्लों को रुधिर यकृत में ले आता है। आवश्यकता से अधिक अमीनों अम्लों को यकृत द्वारा यूरिया में बदलकर मूत्र द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। यदि शरीर में से यूरिया न निकले तो शरीर में गठिया आदि रोग हो जाते हैं।

प्रश्न 11.
आहारनाल से सम्बन्धित मुख्य पाचक ग्रन्थियों का संक्षेप में वर्णन करते हुए उनके मुख्य कार्य बताइए। (2015)
उत्तर:
आहारनाल से सम्बन्धित पाचक ग्रन्थियाँ:
आहारनाल के अन्दर विभिन्न स्थानों की श्लेष्मकला में उपस्थित विभिन्न पाचक ग्रन्थियों; जैसे – लार ग्रन्थियाँ, जठर ग्रन्थियाँ, आन्त्रीय ग्रन्थियाँ आदि के अतिरिक्त इससे सम्बन्धित तथा बड़ी-बड़ी दो पाचक ग्रन्थियाँ होती हैं।

1. यकृत यकृत शरीर में पायी जाने वाली सबसे बड़ी ग्रन्थि है। यह उदर गुहा में डायाफ्राम के ठीक पीछे, मीसेण्ट्री द्वारा सधा चॉकलेटी रंग का एक बड़ा-सा कोमल, परन्तु ठोस द्विपालित अंग (bilobed organ) होता है। बायीं पाली (left lobe) काफी छोटी तथा दायीं पाली (right lobe) काफी बड़ी होती है। यह हल्की प्रसिताओं (furrows) द्वारा तीन पालियों में बँटी होती है। यकृत की विभिन्न पालियों से छोटी-छोटी वाहिनियाँ निकलकर एक पित्त वाहिनी (bile duct) बनाती हैं। यह ग्रहणी में खुलती है। यकृत में एक क्षारीय रस बनता है जिसे पित्त रस (bile juice) कहते हैं। यह पाचन में सहायक है।

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2. अग्न्याशय ग्रहणी आमाशय के साथ ‘C’ आकार की रचना बनाती है। इसी के मध्य में यकृत तथा आमाशय के पीछे स्थित, मछली के आकार की कोमल एवं गुलाबी रंग की एक चपटी ग्रन्थि होती है, जिसे अग्न्याशय कहते हैं। यह यकृत के बाद शरीर की सबसे बड़ी ग्रन्थि होती है। इसमें दो विभिन्न प्रकार के ग्रन्थिल ऊतक भाग होते हैं –

(i) बाह्यस्रावी (exocrine part) तथा इसी में जगह-जगह अन्तःस्रावी (endocrine) कोशिकाओं के समूह होते हैं जिन्हें लैंगरहैन्स की द्वीपिकायें (islets of Langerhans) कहते हैं।

इस ग्रन्थि में पाचन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, अनेक एन्जाइम्स (enzymes) वाला अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) बनता है। अग्न्याशय की विभिन्न पालियों से छोटी-छोटी वाहिनियाँ उत्पन्न होती हैं, जो मिलकर अग्न्याशयी वाहिनियों (pancreatic ducts) का निर्माण करती हैं। ये वाहिनियाँ पित्त वाहिनी (bile duct) में खुलती हैं, जो स्वयं ग्रहणी के समीपस्थ भाग से सम्बन्धित होती है।

प्रश्न 12.
वसा का पाचन आहारनाल के किस भाग में होता है? उस पाचक रस का नाम लिखिए जो वसा के पाचन में सहायक होता है। (2011, 12)
उत्तर:
ग्रहणी व छोटी आँत में। लाइपेज भोजन की वसा पर क्रिया करके उसे वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल में बदल देता है।

प्रश्न 13.
एन्जाइम्स क्या हैं? किन्हीं दो एन्जाइमों के नाम लिखकर उनके कार्य बताइए। (2017)
उत्तर:
पाचन क्रिया में कुछ रासायनिक क्रियाएँ होती हैं जिनमें कुछ सूक्ष्म मात्रा में पाये जाने वाले पदार्थों का विशेष महत्त्व है। ये पदार्थ इन क्रियाओं को उत्तेजित करते हैं तथा चलाते हैं। इन पदार्थों को विकर या एन्जाइम्स कहते हैं। ये एन्जाइम्स पाचक रसों में होते हैं। दो प्रमुख एन्जाइम व उनके कार्य इस प्रकार हैं –
1. ट्रिप्सिन: अधपचे प्रोटीन और पेप्टोन्स पर क्रिया करके उनको ऐमीनो अम्लों में बदलता है।
2. एमाइलोप्सिन: विभिन्न प्रकार की शर्कराओं और मण्ड को ग्लूकोस में बदलता है।

प्रश्न 14.
विटामिन की परिभाषा लिखिए। जल में घुलनशील दो विटामिनों के बारे में लिखिए। (2010)
या विटामिन के प्रकार लिखिए तथा उनके नामों का भी उल्लेख कीजिए। (2016)
उत्तर:
विटामिन्स (Vitamins) ये जटिल कार्बनिक पदार्थ हैं, जो शरीर को प्रतिरक्षा प्रदान करते हैं। इनकी कमी से अपूर्णता रोग (deficiency diseases) होते हैं। इन्हें वृद्धिकारक (growth factors) भी कहते हैं। विटामिन्स मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं –
1. जल में घुलनशील, जैसे विटामिन्स ‘बी’, ‘सी’
2. वसा में घुलनशील, जैसे विटामिन्स ‘ए’, ‘डी’, ‘ई’, ‘के’

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प्रश्न 15.
निम्नलिखित विटामिन्स के स्त्रोत एवं उनकी कमी से होने वाली व्याधियों का वर्णन कीजिए।

  1. विटामिन A
  2. विटामिन B
  3. विटामिन C
  4. विटामिन D (2013)

किन्हीं चार विटामिनों के नाम, स्त्रोत तथा कार्य लिखिए। (2015)
उत्तर:
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प्रश्न 16.
पाचक रस पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2013)
या मनुष्य में पाये जाने वाले पाचक रसों के कार्यों का वर्णन कीजिए। (2013)
या पित्त रस क्या है? यह कहाँ बनता है? इसके कार्य का उल्लेख कीजिए। (2017)
या यकृत तथा अग्न्याशय द्वारा स्रावित पदार्थों की पाचन क्रिया में उपयोगिता को समझाइए। (2017)
या अग्न्याशय द्वारा स्रावित दो पाचक एन्जाइम के नाम तथा कार्य लिखिए। (2018)
उत्तर:
पाचक रस भोजन को पचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पाचक रस निम्न प्रकार के होते हैं –

1. लार: लार भोजन को निगलने में सहायक होती है तथा कार्बोहाइड्रेट को पचाने में भी भाग लेती है। लार में उपस्थित टायलिन नामक एन्जाइम मण्ड को शर्करा में बदल देता है।

2. जठर रस: जठर ग्रन्थियों से जठर रस निकलता है तथा जठर रस में HCl, पेप्सिन तथा रेनिन नामक एन्जाइम होते हैं। HCl भोजन के माध्यम को अम्लीय करता है तथा भोजन के कठोर कणों को गला देता है। पेप्सिन प्रोटीन पर कार्यशील है और प्रोटीन को पेप्टोन्स तथा पेप्टाइड्स में बदल देता है।

3. पित्त रस तथा अग्न्याशयिक रस: ग्रहणी में, अग्न्याशय से निकलने वाला अग्न्याशयिक रस तथा यकृत से निकलने वाला पित्त रस आकर मिलते हैं। पित्त रस में कोई एन्जाइम नहीं होता है, फिर भी भोजन के पाचन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

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क्योंकि यह भोजन के माध्यम को अम्लीय से बदलकर क्षारीय बनाता है। अग्न्याशयिक रस में पाये जाने वाले सभी एन्जाइम क्षारीय माध्यम में ही सक्रिय होते हैं। यहाँ पर काइम में अग्न्याशयिक रस में उपस्थित एन्जाइम्स द्वारा निम्नांकित परिवर्तन किये जाते हैं –

  • ट्रिप्सिन (Trypsin) यह भोजन की प्रोटीन्स, पेप्टोन्स आदि पर क्रिया करता है। यह अग्न्याशयिक रस में ट्रिप्सिनोजन (trypsinogen) के रूप में होता है तथा क्षारीय माध्यम में सक्रिय होता है।
  • लाइपेज (Lipase) यह भोजन की वसा पर क्रिया कर उसे वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल में बदल देता है।
  • एमाइलॉप्सिन या एमाइथेज (Amylopsin) यह कार्बोहाइड्रेट्स पर क्रिया कर, उन्हें माल्टोज (maltose) एवं अन्य शर्कराओं में बदल देता है।

4. आँत्र रस इसमें उपस्थित एन्जाइम अधपचे भोजन पर क्रिया करते हैं। आन्त्र रस में उपस्थित निम्नलिखित एन्जाइम अधपचे भोजन पर क्रिया करते हैं –

  • सुक्रेज (Sucrase) यह शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।
  • लेक्टेज (Lactase) यह लैक्टोज शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।
  • माल्टेज (Maltase) यह माल्टोज शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।
  • इरेप्सिन (Erepsin) यह शेष प्रोटीन तथा उसके अवयवों को अमीनो अम्लों में बदल देता है।

प्रश्न 17.
कुपोषण के मुख्य लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कुपोषण के परिणामस्वरूप कुछ असामान्य शारीरिक लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। ये लक्षण मुख्य रूप से अपोषण से सम्बन्धित होते हैं। अपोषण के परिणामस्वरूप व्यक्ति के शरीर की मांसपेशियों का गठन कमजोर होने लगता है। अपोषण के परिणामस्वरूप शरीर की अस्थियाँ विकृत तथा कमजोर हो जाती हैं। अस्थि-कंकाल में कुछ असामान्य झुकाव या विकार आ जाते हैं। अपोषण का प्रभाव व्यक्ति की त्वचा एवं बालों पर भी दृष्टिगोचर होता है। त्वचा की स्वाभाविक सुन्दरता व कोमलता समाप्त होने लगती है तथा त्वचा रूखी एवं खुरदरी होने लगती है।

इसी प्रकार कुपोषण की स्थिति में बालों की स्वाभाविक चमक भी घटने लगती है, बाल टूटने लगते हैं तथा उनकी वृद्धि रुक जाती है। कुपोषण के परिणामस्वरूप व्यक्ति की आँखों की स्वाभाविक सुन्दरता कम हो जाती है तथा आँखों की रोशनी भी कम हो जाती है। कुपोषण के परिणामस्वरूप पाचन-संस्थान की क्रियाशीलता भी प्रभावित होती है।

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इस दशा में पाचन-क्रिया में सहायक विभिन्न एन्जाइम तथा रस समुचित मात्रा में नहीं बनते; अत: आहार का पाचन एवं शोषण ठीक प्रकार से नहीं होता। अपोषण के परिणामस्वरूप विभिन्न रोगों से लड़ने तथा मुकाबला करने की शरीर की स्वाभाविक क्षमता क्रमशः घटने लगती है। इस स्थिति में व्यक्ति बार-बार विभिन्न रोगों का शिकार होता रहता है।

प्रश्न 18.
श्वासोच्छ्वास तथा श्वसन में अन्तर कीजिए। (2011, 13)
उत्तर:
श्वासोच्छ्वास एवं श्वसन में अन्तर –
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प्रश्न 19.
कोशिकीय श्वसन को परिभाषित कीजिए तथा उसकी रूप-रेखा बनाइए। (2017)
उत्तर:
यह वास्तविक श्वसन है तथा इसकी क्रियाएँ जीवित कोशिकाओं के अन्दर कोशिका द्रव्य तथा विशेष प्रकार के कोशिकांगों-माइटोकॉण्ड्रिया में होती है। यह क्रिया दो पदों में होती है –
1. ग्लाइकोलाइसिस (glycolysis):
में ग्लूकोज जैसे पदार्थ को पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) में बदला जाता है। यह क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है। इसके बाद की क्रियाएँ ऑक्सीजन (O2) की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति पर निर्भर करती हैं।

2. क्रेब्स चक्र (Krebs cycle):
में पाइरुविक अम्ल के पूर्ण विघटन से जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड बनती है। यह क्रिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) में सम्पन्न होती है। इसे ऑक्सी या वायव श्वसन (aerobic respiration) कहते हैं।

ऑक्सीजन के अभाव में कोशिकाद्रव्य में ही पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) के अपूर्ण ऑक्सीकरण से एथिल ऐल्कोहॉल (ethyl alcohol) तथा कार्बन डाइऑक्साइड बनती है। इस प्रक्रिया को अनॉक्सी या अवायव श्वसन (anaerobic respiration) कहते हैं।

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प्रश्न 20.
मानव रक्त की संरचना व कार्यों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (2017, 18) या रुधिर के चार कार्य बताइए। (2009, 13)
उत्तर:
रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है। रुधिर के निम्नलिखित दो भाग होते हैं –

  1. प्लाज्मा
  2. रुधिर कणिकाएँ

1. प्लाज्मा:
यह रुधिर का पीले रंग का आधारभूत तरल (ground fluid), साफ, चिपचिपा तथा पारदर्शी पदार्थ होता है। यह रुधिर का लगभग 60% भाग (स्वस्थ मनुष्य में लगभग 3,500 मिली) होता है। स्वयं प्लाज्मा का लगभग 90% भाग जल होता है। शेष लगभग 10% भाग में जटिल कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। अकार्बनिक पदार्थों में प्रायः सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम व मैग्नीशियम आदि के क्लोराइड्स, बाइकार्बोनेट्स, फॉस्फेट्स, सल्फेट्स तथा आयोडाइड आदि लवण होते हैं जोकि सामान्यत: आयन्स के रूप में पाये जाते हैं। ये ही रुधिर को हल्का क्षारीय बनाये रखते हैं।

2. रुधिर कणिकाएँ:
रुधिर का लगभग 40-45% भाग रुधिर कणिकाएँ होती हैं। ये प्रमुखतः तीन प्रकार की होती हैं।

  • लाल रुधिर कणिकाएँ
  • श्वेत रुधिर कणिकाएँ तथा
  • प्लेटलेट्स। रुधिर के कार्य इसका प्रमुख कार्य दो ऊतकों के बीच विभिन्न प्रकार के संयोजन करना है। इन कार्यों को हम निम्नलिखित बिन्दुओं में वर्णित कर सकते हैं।

1. ऑक्सीजन व अन्य गैसों का परिवहन:
रुधिर की लाल रुधिर कणिकाओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन ग्रहण करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन नामक अस्थायी यौगिक बनाता है। ऊतकों में पहुँचने पर ऑक्सीहीमोग्लोबिन टूटकर ऑक्सीजन तथा हीमोग्लोबिन में बदल जाता है। इस प्रकार, श्वसन के लिए ऊतकों को ऑक्सीजन मिल जाती है। इसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड के साथ भी हीमोग्लोबिन कार्बोएमीन यौगिक बनाता है।

2. पोषक पदार्थों का परिवहन:
जल में विलेय खाद्य पदार्थ (पोषक तत्त्व) अवशोषण के समय रुधिर द्वारा ही ग्रहण किये जाते हैं तथा शरीर के अन्य भागों को भी रुधिर द्वारा ही परिसंचरित किये जाते हैं। आँतों से ये पदार्थ पहले यकृत में ले जाये जाते हैं। यकृत इन पोषक तत्त्वों की मात्रा तथा स्वरूप निश्चित करके रुधिर द्वारा सभी ऊतकों को भेजता है।

3. उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन:
शरीर में होने वाली अनेक प्रकार की उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप अनेक हानिकारक उत्सर्जी पदार्थ बनते रहते हैं। इनमें नाइट्रोजन यौगिक प्रमुख हैं। इन्हें रुधिर पहले यकृत में तथा बाद में यकृत से वृक्कों में पहुंचाता है। वृक्क इन्हें रुधिर से छानकर मूत्र के रूप में बाहर निकाल देता है। श्वसनांगों से कार्बन डाइऑक्साइड भी प्रमुखतः रुधिर के प्लाज्मा द्वारा फेफड़ों तक पहुँचायी जाती है।

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4. अन्य पदार्थों का परिसंचरण:
अनेक प्रकार के पदार्थों; जैसे-हॉर्मोन्स, एन्जाइम्स, एण्टीबॉडीज आदि को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाने का कार्य रुधिर ही करता है।

5. रोगों से बचाव व घाव को भरना:
शरीर में जब कोई घाव इत्यादि हो जाता है तो श्वेत रुधिर कणिकाएँ वहाँ पहुँचकर रोगाणुओं से लड़ती हैं तथा मवाद या पस (pus) बना लेती हैं। मवाद में रोगाणु भी सम्मिलित होते हैं। साथ ही रुधिर उस स्थान पर आवश्यक पदार्थ आदि को भी पहुँचाता है। इस प्रकार रुधिर घाव के भरने में सहायता करता है।

6. शरीर के ताप पर नियन्त्रण:
रुधिर शरीर के ताप पर नियन्त्रण व नियमन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

7. रुधिर का थक्का बनना:
किसी स्थान पर कट-फट जाने से रुधिर बहने लगता है। यदि यह रुधिर बहता रहे तो जन्तु की मृत्यु हो सकती है। रुधिर में इस प्रकार की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ होती हैं कि यदि कहीं पर भी रुधिर बाहर के सम्पर्क में आता है तो तुरन्त ही उसमें थक्का बनने की कार्यवाही प्रारम्भ हो जाती है।

प्रश्न 21.
हीमोग्लोबिन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (2014, 18)
या हीमोग्लोबिन कहाँ पाया जाता है? इसका मुख्य कार्य बताइए। (2018)
उत्तर:
हीमोग्लोबिन लाल रक्त कणिकाओं में उपस्थित रंगायुक्त (लाल रंग) ग्लोब्यूलर प्रोटीन के अणु हैं। हीमोग्लोबिन श्वसन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राणियों में श्वसन क्रिया में ग्रहण की गई ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन से क्रिया करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनाती है। कोशिकाओं में ऑक्सीहीमोग्लोबिन विघटित होकर ऑक्सीश्वसन के लिए O2 को मुक्त कर देता है। इस प्रकार हीमोग्लोबिन प्राणियों के शरीर में ऑक्सीजन परिवहन का कार्य करती है।

प्रश्न 22.
रुधिर और लसीका में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2013, 14, 15, 16)
उत्तर:
रुधिर और लसीका में अन्तर –
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प्रश्न 23.
धमनी तथा शिरा को परिभाषित कीजिए। (2016, 17)
उत्तर:
रुधिर परिसंचरण के लिए हृदय एक पम्प के समान कार्य करके जिन वाहिनियों में रुधिर को भेजता है उन्हें धमनियाँ कहते हैं। धमनियाँ ऊतकों में पहुँचकर केशिकाओं में बँट जाती हैं तथा बाद में एकत्रित होकर शिराओं का निर्माण करती हैं। शिराएँ रुधिर को वापस हृदय में लाती हैं।

प्रश्न 24.
धमनी और शिरा में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (2009, 11, 12, 14)
या धमनी और शिरा में चार मुख्य अन्तर बताइए। (2011, 14, 15, 16)
उत्तर:
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प्रश्न 25.
लसिका परिवहन के कार्यों का उल्लेख कीजिए। (2015)
उत्तर:
लसिका परिवहन के कार्य –

  1. कोशिकाओं को पोषक तत्त्वों, गैसों, हॉर्मोन्स तथा एन्जाइम्स आदि को पहुँचाने तथा आदान-प्रदान के लिए माध्यम का कार्य करता है।
  2. कोशिका ऊतकों से कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य हानिकारक उत्सर्जी पदार्थों को रक्त तक पहुँचाता है।
  3. लसिका केशिकाएँ जो रसांकुरों में फैली रहती हैं, पचे हुए भोजन का अवशोषण करती हैं।
  4. लसिका कोशिकाओं के चारों ओर जलीय वातावरण बनाकर कोशिका के बाहर एवं भीतर परासरण सन्तुलन बनाये रखता है।
  5. लसिका वाहिनियों में स्थित लसिका ग्रन्थियों में लिम्फोसाइट्स का निर्माण होता है, जो जीवाणुओं का भक्षण करते हैं।
  6. यह कोमल अंगों को रगड़ से बचाता है।

प्रश्न 26.
रुधिर वाहिनियाँ किसे कहते हैं? इनके प्रकार लिखिए। (2017)
उत्तर:
रुधिर का परिवहन जिन नलिकाओं के द्वारा होता है, उन्हें रुधिर वाहिनियाँ कहते हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं –

  1. धमनियाँ: ये रुधिर को हृदय से विभिन्न अंगों में ले जाती हैं।
  2. शिराएँ: ये विभिन्न अंगों से रुधिर वापस हृदय में लाती हैं।
  3. केशिकाएँ: धमनियाँ अंगों में पहुँचकर धमनिकाओं (arterioles) में विभाजित होती हैं, बाद में ये शाखा-प्रतिशाखा बनाते हुए अत्यन्त पतली भित्ति वाली महीन शाखाओं का जाल बना लेती हैं। इन महीन शाखाओं को केशिकाएँ (capillaries) कहते हैं। इनकी भित्ति केवल एक कोशिका मोटी एण्डोथीलियम (endothelium) की बनी होती है।

प्रश्न 27.
पादपों में फ्लोएम द्वारा भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण को समझाइए। (2014)
या मुंच परिकल्पना क्या है? उचित चित्रों के माध्यम से स्पष्ट कीजिए। (2018)
उत्तर:
पादप शरीर में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं (जैविक क्रियाओं) के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण से ही प्राप्त होती है। पत्तियों में बना हुआ खाद्य पदार्थ उपयोग, संचय स्थलों अथवा एक अंग से दूसरे अंग तक पहुँचना आवश्यक होता है। खाद्य पदार्थों का इस प्रकार का स्थानान्तरण घुलनशील अवस्था में फ्लोएम (phloem) ऊतक द्वारा ऊपर से नीचे की ओर होता है, किन्तु विशेष अवस्थाओं में संचय के स्थानों से विपरीत दिशा में भी होता है।

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खाद्य के स्थानान्तरण का कार्य मुख्यतः
चालनी-नलिकाओं (sieve tubes) तथा सहकोशिकाओं (companion cells) द्वारा होता है। मुंच परिकल्पना खाद्य पदार्थों के स्थानान्तरण के सन्दर्भ में अनेक परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की गई हैं. इनमें से मुंच परिकल्पना सर्वमान्य है। मुंच (Munch, 1927-30) ने फ्लोएम में भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण के सम्बन्ध में कहा है कि यह क्रिया अधिक सान्द्रता वाले स्थानों से कम सान्द्रता वाले स्थानों की ओर होती है।

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पर्णमध्योतकी कोशिकाओं (mesophyll cells) में निरन्तर भोज्य पदार्थों के बनते रहने के कारण परासरण दाब अधिक हो जाता है। उधर जड़ों में या अन्य स्थानों में इन पदार्थों के उपयोग में आते रहने अथवा अघुलनशील रूप में संचित हो जाने से सान्द्रता कम हो जाती है। अत: पर्णमध्योतक कोशिकाओं से फ्लोएम में होकर आवश्यकता के स्थानों को स्थानान्तरण, सामूहिक रूप में अथवा परासरण दाब के कारण होता है।

पर्णमध्योतक कोशिकाओं में निरन्तर शर्करा का निर्माण होता रहता है। इससे इन कोशिकाओं का परासरणी दाब कम नहीं हो पाता। जड़ अथवा भोजन संचय करने वाले भागों में शर्करा के उपयोग के कारण अथवा भोज्य पदार्थों के अघुलनशील अवस्था में बदलकर संचित होने के कारण कोशिकाओं का परासरणी दाब कम रहता है। इसके फलस्वरूप पर्णमध्योतक कोशिकाओं से भोज्य पदार्थ अविरल रूप से फ्लोएम में प्रवाहित होते रहते हैं।

प्रश्न 28.
मूलदाब किसे कहते हैं तथा इसका क्या महत्त्व है? नामांकित चित्र की सहायता से मूलदाब दर्शाइए। (2012)
या पौधों में जल संवहन का सचित्र वर्णन कीजिए। (2013)
या नामांकित चित्र द्वारा मूलदाब के प्रदर्शन का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर:
मूलदाब वह दाब है जो जड़ों की कॉर्टेक्स-कोशिकाओं द्वारा पूर्ण स्फीत अवस्था में उत्पन्न होता है जिसके फलस्वरूप कोशिकाओं में एकत्रित जल न केवल जाइलम वाहिकाओं में पहुँचता है बल्कि तने में भी कुछ ऊँचाई तक चढ़ जाता है।

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प्रयोग-मूलदाब का प्रदर्शन:
पारा प्रयोग मैनोमीटर मूलदाब दिखाने के लिये गमले में लगा हुआ एक स्वस्थ व के अन्त में शाकीय (herbaceous) पौधा लेते हैं। गमला ऐसा लेते हैं। जिसमें काफी मात्रा में जल दिया जा चुका हो।

पौधे के तने को प्रारम्भ में – गमले की मिट्टी से कुछ सेन्टीमीटर ऊपर से काट देते हैं और तने के बँटे अर्थात् कटे हुये सिरे को रबड़ की नली की सहायता से शीशे के मैनोमीटर से जोड़ देते हैं। इसकी नली मेंरबड़ का छल्ला – कुछ पानी डालकर उसमें पारा भर देते हैं। कुछ समय पश्चात् मैनोमीटर की नली में पारे का तल ऊपर चढ़ता दिखाई देता है। मैनोमीटर की नली में पारे के तल का ऊपर चढ़ना मूलदाब के कारण ही होता है। इसी दाब के कारण मूलरोमों द्वारा अवशोषित जल जाइलम वाहिकाओं में ऊपर तक ढकेल दिया जाता है।
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यदि किसी पौधे का ऊपरी सिरा काट दिया जाये तो कटे स्थान से रस टपकने लगता है। वह मूलदाब के कारण होता है। इसी प्रकार ताड़ी (खजूर) के पौधे के कटे भाग से रस टपकने की क्रिया मूलदाब के कारण ही होती है। निष्कर्ष तने के कटे हुए भाग से पानी का बलपूर्वक निकलना मूल दाब के कारण होता है। पानी के प्रारम्भिक व अन्तिम तलों के अन्तर से मूलदाब को ज्ञात किया जा सकता है।

प्रश्न 29.
मूलरोमों द्वारा जल का अवशोषण किस प्रकार होता है? स्पष्ट कीजिए। (2015, 16)
या जड़ में जल के संवहन का एक स्वच्छ एवं नामांकित चित्र बनाइए। (2011, 12)
या पौधों में जड़ों द्वारा जल के अवशोषण का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाकर वर्णन कीजिए। (2010)
उत्तर:
जड़ के मूलरोम प्रदेश (roothair region) में स्थित मूलरोमों द्वारा जल का अवशोषण प्रायः परासरण दाब भिन्नता के फलस्वरूप होता है। मृदा जल मूलरोम कोशिका के उच्च परासरण दाब के कारण अर्द्धपारगम्य झिल्ली से होकर मूलरोम कोशिका में प्रवेश करता है। मूलरोम कोशिका की स्फीत कोशिका का परासरणीय दाब कॉर्टेक्स की समीपवर्ती कोशिका से कम हो जाता है, मूलरोम कोशिका से जल समीपवर्ती वल्कुट कोशिका में पहुँच जाता है; मूलरोम कोशिका का परासरणीय दाब पुनः अधिक हो जाने से यह पुन: मृदा जल को अवशोषित करके आशून हो जाती है।

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कॉर्टेक्स कोशिकाएँ क्रमशः जल अवशोषित करके स्फीत (आशून-turgid) हो जाती हैं। स्फीत कोशिकाएँ जल को एक दबाव के साथ जाइलम वाहिकाओं में धकेल देती हैं। इस दाब को मूलदाब कहते हैं। जड़ों द्वारा इस प्रकार जल के अवशोषण को सक्रिय अवशोषण (active absorption) कहते हैं। इसमें ऊर्जा व्यय होती है।
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वृक्षों में जल का अवशोषण सामान्यतया वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (transpiration pull) के कारण होता है। इसे निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption) कहते हैं। इस क्रिया में ऊर्जा व्यय नहीं होती।

प्रश्न 30.
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं? (2014, 15, 16)
उत्तर:
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक निम्नवत् हैं –

  • वायुमण्डल में आर्द्रता बढ़ने पर वाष्पोत्सर्जन कम होता है।
  • वायुमण्डलीय ताप बढ़ने पर तथा तेज हवा चलने या आंधी आने पर वाष्पोत्सर्जन बढ़ जाता है।
  • प्रकाश या दिन में वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है और रात में कम क्योंकि दिन में प्रकाश-संश्लेषण के लिए स्टोमेटा खुले रहते हैं जिससे वाष्पीकरण अधिक होता है।
  • पत्तियों पर स्टोमेटा की संख्या व स्थिति वाष्पोत्सर्जन की दर को प्रभावित करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पोषण क्या है? पोषण की आवश्यकता क्यों पड़ती है? पोषण के मुख्य प्रकारों का उल्लेख कीजिए। (2013, 16, 17)
या पोषण के प्रकार बताइए। मृतोपजीवी व परजीवी पोषण में अन्तर बताइए। (2015, 16)
उत्तर:
पोषण:
सभी जीवों को जीवित रहने तथा शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयी क्रियाओं को करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है। विभिन्न प्रकार के जीव भोजन लेने के लिए विभिन्न विधियाँ अपनाते हैं। भोजन ग्रहण करने से लेकर, पाचन, अवशोषण, कोशिकाओं तक पहुँचाने, कोशिका में उसके ऊर्जा उत्पादन में प्रयोग करने अथवा जीवद्रव्य में स्वांगीकृत करने तथा भविष्य के लिए उसे शरीर में संगृहीत करने तक की सभी क्रियाओं का सम्मिलित नाम पोषण है।

इस प्रकार पोषण एक जटिल क्रिया है तथा यह अनेक पदों या चरणों में पूरी होती है; जबकि पाचन पोषण की अन्तक्रिया है।

पोषण की विधियाँ (प्रकार):
पोषण के विभिन्न प्रकारों अथवा विधियों को मुख्य रूप से निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है –
I. स्वपोषण तथा
II. परपोषण।

I. स्वपोषण Autotrophic nutrition ऐसे सभी जीव स्वपोषी कहलाते हैं, जो अकार्बनिक पदार्थों की सहायता से अपना भोजन स्वयं निर्मित करते हैं तथा ऊर्जा का संचय करते हैं। ऐसा केवल हरे पौधे अपनी पर्णहरित युक्त कोशिकाओं में करते हैं। ये पौधे प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स के रूप में भोजन निर्मित करते हैं। इस क्रिया में ये कार्बन डाइऑक्साइड तथा पानी का कच्चे पदार्थों के रूप में उपयोग करते हैं।

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II. परपोषण: (Heterotrophic nutrition) वे सभी जीव, जो अपने भोजन का निर्माण नहीं कर सकते अपितु अन्य स्रोतों से तैयार भोजन ग्रहण करते हैं, परपोषी या विषमपोषी कहलाते हैं। परपोषी जीव अपने पोषण के आधार पर निम्नलिखित प्रकार के माने जाते हैं –
(a) प्राणिसमभोजी पोषण Holozoic nutrition ठोस भोजन ग्रहण करने वाले जीव प्राणिसमभोजी कहलाते हैं। ये भोजन का भक्षण करते हैं। सभी जन्तु प्रायः इसी प्रकार के होते हैं।

(b) मृतोपजीवी पोषण: (Saprophytic nutrition) ऐसे जीव, जो अपना भोजन मृत जन्तुओं या पौधों तथा उनके उत्सर्जी पदार्थों आदि से प्राप्त करते हैं, मृतोपजीवी कहलाते हैं; जैसे – अनेक जीवाणु, कवक आदि।

(c) परजीवी पोषण: (Parasitic nutrition) ऐसे जीव, जो अपना भोजन दूसरे जीव के शरीर के बाहर अथवा भीतर रहकर प्रत्यक्ष रूप से उसके जीवित अवस्था में ही प्राप्त करते हैं, परजीवी कहलाते हैं। परजीवी अपने पोषद (host), जिससे वे अपना भोजन आदि प्राप्त करते हैं, में कुछ-न-कुछ व्याधि अवश्य उत्पन्न करते हैं; जैसे – आँतों में रहने वाले कृमि व रुधिर चूसने वाले मच्छर, पौधों के विभिन्न रोग आदि।

प्रश्न 2.
प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया-विधि का संक्षेप में वर्णन कीजिए। (2011, 18)
या प्रकाश-संश्लेषण को परिभाषित कीजिए तथा इसकी क्रिया-विधि समझाइए। (2013)
प्रकाश-संश्लेषण को परिभाषित कीजिए। प्रकाश-संश्लेषण की प्रकाशीय अभिक्रिया की क्रिया-विधि समझाइए। (2012, 16, 18)
जल का प्रकाश अपघटन क्या होता है? समझाइए। (2012)
प्रकाश-संश्लेषण की क्रियाविधि को समझाइए। प्रकाश-संश्लेषण में प्रकाशिक तथा अप्रकाशिक अभिक्रियाओं पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए। (2015)
उत्तर:
प्रकाश-संश्लेषण:
हरे पौधों में जिनमें क्लोरोफिल या पर्णहरित पाया जाता है, प्रकाश की उपस्थिति में पानी तथा कार्बन डाइऑक्साइड की सहायता से कार्बोहाइड्रेट विशेषकर ग्लूकोज का निर्माण होता है, यह क्रिया प्रकाश-संश्लेषण कहलाती है। इस क्रिया में ऑक्सीजन गैस निकलती है।
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प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया-विधि –
प्रकाश-संश्लेषण एक जटिल आन्तरोष्मी (endothermal) उपचयी अभिक्रिया है। यह क्रिया दो चरणों में पूरी होती है – प्रकाशिक अभिक्रिया तथा अप्रकाशिक अभिक्रिया।

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1. प्रकाशिक अभिक्रिया या हिल अभिक्रिया:
प्रकाशिक अभिक्रिया का अध्ययन सर्वप्रथम हिल (Hill) नामक वैज्ञानिक ने किया था, इसलिए इसे हिल अभिक्रिया कहते हैं। यह क्रिया हरित लवकों के ग्रैना में क्लोरोफिल की सहायता से होती है। यह निम्नलिखित पदों में पूर्ण होती है –

  • सूर्य का प्रकाश अवशोषित कर हरितलवकों के ग्रैना में उपस्थित पर्णहरित सक्रिय हो जाता है और ADP से ATP (एडिनोसीन ट्राइफॉस्फेट) का निर्माण होता है। ATP में प्रचुर मात्रा में ऊर्जा संचित हो जाती है।
  • ऊर्जावित क्लोरोफिल द्वारा जल का H+ तथा OH आयनों में प्रकाशिक अपघटन (photolysis) होता है।
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  • जल के प्रकाश अपघटन से उत्पन्न OH आयन परस्पर मिलकर पानी और ऑक्सीजन बनाते हैं। ऑक्सीजन गैस के रूप में मुक्त होकर स्टोमेटा द्वारा बाहर निकल जाती है।
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  • जल के प्रकाश अपघटन से मुक्त हाइड्रोजन आयन से उत्तेजित इलेक्ट्रॉन्स निकलते हैं जो इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण प्रणाली (electron transfer system) के द्वारा ऊर्जा को ATP के रूप में मुक्त करते हैं। इस क्रिया में H+ आयन NADP को NADPH2 में अपचयित करते हैं।
    4 (H+)+2 NADP → 2NADP H2 ADP + P → ATP
    ATP के निर्माण को फोटोफॉस्फोरिलेशन (photophosphory lation) कहते हैं।

2. अप्रकाशिक अभिक्रिया अथवा केल्विन चक्र –
इस अभिक्रिया का अध्ययन सर्वप्रथम ब्लैकमेन (Blackman) नामक वैज्ञानिक ने किया था, इसलिए इसे ब्लैकमेन अभिक्रिया भी कहते हैं। यह अभिक्रिया हरितलवक के स्ट्रोमा में होती है। इसमें प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। इस अभिक्रिया में CO2 के अपचयन से कार्बोहाइड्रेट बनता है। यह अभिक्रिया निम्न चरणों में होती है –

  • CO2 के 6 अणु कोशिकाओं में उपस्थित रिबुलोज डाइफॉस्फेट (RDP) से संयोग करके 12 अणु फास्फोग्लिसरिक अम्ल (PGA) बनाते हैं। ]
  • फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल NADPH, से हाइड्रोजन प्राप्त करके फॉस्फोग्लिसरेल्डीहाइड (PGAL) में परिवर्तित हो जाता है तथा NADP पुन: प्रकाशिक अभिक्रिया में उत्पन्न हाइड्रोजन आयनों को ग्रहण करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता है।
  • फॉस्फोग्लिसरेल्डीहाइड अणुओं में 10 अणु पुन: RDP में बदल जाते हैं तथा शेष दो अणु हैक्सोज शर्करा-ग्लूकोस बनाते हैं।
    6CO2 + 12 ATP + 12NADPH2 → C6H12O6 + 12 ATP + 12 NADP + 6H2O इस सम्पूर्ण चक्र को केल्विन चक्र कहते हैं।

प्रश्न 3.
पाचन से क्या तात्पर्य है? इसमें कौन-कौन से पाचक रस भाग लेते हैं? पचे हुए भोजन के अवशोषण तथा स्वांगीकरण की क्रिया का वर्णन कीजिए। (2011, 12, 13)
या  पाचन किसे कहते हैं? मुँह से लेकर कोशिका में अवशोषित होने तक भोजन में जो परिवर्तन होते हैं, उनका चरणबद्ध वर्णन कीजिए।
या पाचन किसे कहते हैं? आमाशयिक (जठर रस) रस (gastric juice) तथा अग्न्याशयिक रस (pancreaticjuice) में पाये जाने वाले एन्जाइम्स की कार्यिकी समझाइए। (2010, 11) मुख से लेकर आमाशय तक होने वाली पाचन क्रिया को प्रभावित करने वाले विकरों (एन्जाइम्स) के कार्यों का उल्लेख कीजिए। (2016)
उत्तर:
पाचन पाचन का अर्थ है जल में अघुलनशील भोज्य पदार्थों को घुलनशील अवस्था में बदलकर उन्हें अवशोषण के योग्य बनाना, जिससे वे रुधिर में मिलकर अथवा अन्य किसी प्रकार से शरीर के विभिन्न भागों अर्थात् ऊतकों तथा कोशिकाओं में पहुँच जायें। मुँह से लेकर कोशिका में अवशोषित होने तक भोजन में होने वाले परिवर्तन के विभिन्न चरण भोजन का अन्तर्ग्रहण मुख (mouth) द्वारा होता है। मुख से लेकर कोशिका में अवशोषित होने तक विभिन्न पाचन अंगों में होने वाले चरण निम्न प्रकार हैं –

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1. मुख तथा मुखगुहा:
(Mouth and buccal cavity) यह भोजन नली का अग्र भाग है। इसी के द्वारा भोजन का अन्तर्ग्रहण किया जाता है। दाँत भोजन को पीसते हैं। मुखगुहा में लार ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं, जिनसे निकलने वाली लार भोजन को निगलने में सहायक होती है तथा कार्बोहाइड्रेट को पचाने में भाग लेती है। लार में उपस्थित टायलिन (ptyalin) नामक एन्जाइम मण्ड (स्टार्च) को शर्करा में बदल देता है।

भोजन का यहाँ और अधिक पाचन नहीं होता। जीभ पर स्थित स्वाद कणिकाओं द्वारा स्वाद का अनुभव होता है। मुखगुहा के पिछले भाग अर्थात् ग्रसनी (pharynx) के अन्तिम भीतरी छोर पर निगल द्वार (gullet) द्वारा भोजन लसलसी अवस्था में आगे बढ़ता है।

2. ग्रसिका:
(Oesophagus) निगलद्वार से भोजन ग्रसिका या ग्रासनली में आता है। ग्रसिका में कोई पाचन क्रिया नहीं होती। इसके द्वारा भोजन मुखगुहा से आमाशय में आ जाता है।

3. आमाशय:
(Stomach) आमाशय में भोजन आते ही गैस्ट्रिन नामक हॉर्मोन निकलता है, जो जठर ग्रन्थियों (gastric glands) को सक्रिय करता है। जठर ग्रन्थियों से जठर रस (gastric juice) निकलता है। जठर रस में HCI, पेप्सिन (pepsin) तथा रेनिन (renin) नामक एन्जाइम्स होते हैं। HCl भोजन के माध्यम को अम्लीय करता है तथा भोजन के कठोर कणों को गला देता है। यह अक्रिय पेप्सिन अर्थात् पेप्सिनोजन (pepsinogen) को क्रियाशील बनाता है। पेप्सिन प्रोटीन पर क्रियाशील है और प्रोटीन को पेप्टोन्स तथा पेप्टाइड्स में बदल देती है –
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रेनिन दूध को फाड़कर उसमें घुली कैसीन को अलग कर देता है, जिससे उसका आगे पाचन हो सके। आमाशय में भोजन 3 से 5 घण्टे रहता है। यहाँ भोजन अवलेह के रूप में आ जाता है। भोजन के इस स्वरूप को काइम (chyme) कहते हैं।

4. ग्रहणी:
(Duodenum) आमाशय से भोजन छोटी आँत के अग्र भाग अर्थात् ग्रहणी (duodenum) में पहुँचता है। ग्रहणी में, अग्न्याशय (pancreas) से निकलने वाला अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) तथा यकृत (liver) से निकलने वाला पित्त रस (bile juice) आकर मिलते हैं। पित्त रस में कोई एन्जाइम नहीं होता है, फिर भी भोजन के पाचन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि यह भोजन के माध्यम को अम्लीय से बदलकर क्षारीय (alkaline) बनाता है। अग्न्याशयिक रस में पाये जाने वाले सभी एन्जाइम क्षारीय माध्यम में ही सक्रिय होते हैं। यहाँ पर काइम में अग्न्याशयिक रस में उपस्थित एन्जाइम्स द्वारा निम्नांकित परिवर्तन किये जाते हैं –

  • ट्रिप्सिन:
    (Trypsin) यह भोजन की प्रोटीन्स, पेप्टोन्स आदि पर क्रिया करता है। यह अग्न्याशयिक रस में ट्रिप्सिनोजन (rypsinogen) के रूप में होता है तथा क्षारीय माध्यम में सक्रिय होता है।
  • लाइपेज:
    (Lipase) यह भोजन की वसा पर क्रिया कर उसे वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल में बदल देता है।
  • एमाइलॉप्सिन:
    (Amylopsin) यह कार्बोहाइड्रेट्स पर क्रिया कर, उन्हें माल्टोज (maltose) एवं अन्य शर्कराओं में बदल देता है।

5. शेषान्त्र:
(Ileum) ग्रहणी में भोजन के लगभग सभी अवयवों पर क्रिया प्रारम्भ हो जाती है तथा अधिकांश पाचन हो जाता है। इसके पश्चात् छोटी आँत के शेष भाग जिसे शेषान्त्र कहते हैं, में उपस्थित ग्रन्थियों द्वारा स्रावित आन्त्र रस में उपस्थित निम्नलिखित एन्जाइम अधपचे भोजन पर क्रिया करते हैं –

  • सुक्रेज (Sucrase) शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।
  • लेक्टेज (Lactase) लैक्टोज शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।
  • माल्टेज (Maltase) माल्टोज शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।
  • इरेप्सिन (Erepsin) शेष प्रोटीन तथा उसके अवयवों को अमीनो अम्लों में बदल देता है।

पचे हुए भोजन का अवशोषण:
छोटी आंत में भोजन का पाचन पूरा हो जाता है। इसके पश्चात् पूर्ण रूप से पचा हुआ भोजन छोटी आंत में ही विशेषकर इसके पश्च भाग में अवशोषित हो जाता है। छोटी आँत में इसके लिए उपस्थित रसांकुरों (villi) द्वारा अवशोषण तल अत्यधिक बढ़ा हुआ होता है। यह अवशोषित पोषक पदार्थ रुधिर से होते हुए शरीर के विभिन्न ऊतकों तथा ऊतकों में उपस्थित ऊतक द्रव्य के माध्यम से कोशिकाओं में चले जाते हैं।

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6. बड़ी आँत, गुदा तथा गुदाद्वार:
(Large intestine, rectum and anus) आहारनाल के इस भाग में अपच तथा अपशिष्ट भोजन में से जल का अवशोषण होता है। अपशिष्ट को मल के रूप में कुछ समय तक रोका जाता है बाद में उसका बहिःक्षेपण हो जाता है। आहारनाल में भोजन को आगे बढ़ाने की क्रिया प्रमुखतः क्रमाकुंचन नामक गति के द्वारा सम्पन्न होती है।

पचे हुए भोजन का स्वांगीकरण:
पचा हुआ भोजन जो अवशोषित होकर कोशिका के जीवद्रव्य तक पहुँचता है, इस भोजन के तत्त्वों को जीवद्रव्य के स्वरूप में आत्मसात (विलीन) कर लिया जाता है। इस क्रिया को स्वांगीकरण (assimilation) कहते हैं। सभी जीवों में यह क्रिया आवश्यक है। इसी से जीवद्रव्य की वृद्धि होती है, अर्थात् जीव की वृद्धि होती है। पाचन के बाद प्राप्त सरल कार्बनिक अणुओं को कोशिका में होने वाली विशेष क्रियाओं के द्वारा जटिल जैविक अणुओं के रूप में संश्लेषित कर लिया जाता है।

प्रश्न 4.
श्वसन किसे कहते हैं? ऊर्जा का इससे क्या सम्बन्ध है? (2012)
उत्तर:
श्वसन:
पृथ्वी पर पाये जाने वाले प्रत्येक जीव को विभिन्न जैविक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा जीवों के शरीर की सभी जीवित कोशिकाओं में भोजन के विशेषकर कार्बोहाइड्रेट्स के ऑक्सीकरण से उत्पन्न होती है। इस क्रिया में उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है तथा यह ऊर्जा शरीर की विभिन्न जैविक क्रियाओं को करने के लिए ए० टी० पी० (ATP) नामक अणुओं में उच्च ऊर्जा बन्धों के रूप में (विभवीय ऊर्जा) संचित की जाती है। यही

ऊर्जा आवश्यकता के समय काम आती है। इन समस्त क्रियाओं को श्वसन (respiration) कहते हैं। प्रायः ऑक्सीकरण की इस क्रिया में बाहर से लायी हुई ऑक्सीजन (O2) का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार, श्वसन वह क्रिया है जिसमें कोशिका में कार्बनिक यौगिकों; प्रायः ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होता है। इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस ऊर्जा को विशेष ATP अणुओं में विभवीय ऊर्जा के रूप में संचित किया जाता है।

कोशिकीय ऊर्जा व इसके उपयोग:
श्वसन यद्यपि अतिनियन्त्रित जैव-रासायनिक क्रियाओं के रूप में जीवित कोशिका के अन्दर सम्पादित होता है तथा प्रायः सम्पूर्ण श्वसन क्रिया में उत्पन्न ऊर्जा 673 K cal. होती है –
C6H12O6 + 6O6 → 6CO2 + 6H2O + 673 K cal. ऊर्जा
फिर भी उत्पादित सम्पूर्ण ऊर्जा का ए०टी०पी० (ATP) के रूप में अनुबन्धन नहीं हो पाता है और कुछ ऊर्जा ऊष्मा (heat) के रूप में भी विमुक्त हो जाती है अर्थात् श्वसन में ताप बढ़ता है। दूसरी ओर, जो ऊर्जा ए०टी०पी० में अनुबन्धित हो जाती है उसका उपयोग विभिन्न कार्यों के अतिरिक्त अनेक संश्लेषणात्मक क्रियाओं में भी किया जाता है (चित्र)।
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कोशिकीय ऊर्जा, उपर्युक्त के अनुसार, ए०टी०पी० मुद्रा के रूप में होती है। जिन क्रियाओं में इसको उपयोग में लाया जाता है; वे हैं –

  • कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा इत्यादि के संश्लेषण में
  • कार्बनिक पदार्थों (organic food) के स्थानान्तरण में
  • अकार्बनिक और कार्बनिक पदार्थों के अवशोषण में
  • जीवद्रव्य प्रवाह (protoplasmic streaming) में और
  • वृद्धि (growth) में। इन क्रियाओं में ATP से अन्तिम उच्च ऊर्जा बन्ध (bond) अलग होकर क्रियाओं को आवश्यक ऊर्जा दे देता है। फलस्वरूप ADP शेष रह जाता है। इसीलिए ATP को कोशिका का ऊर्जा सिक्का या ऊर्जा मुद्रा (energy currency) कहते हैं। उपर्युक्त चित्र के मध्य में ATP-ADP चक्र देखिए। इसे कोशिका का ऊर्जा चक्र (energy cycle) कहते हैं।

प्रश्न 5.
मनुष्य के श्वसन अंगों को नामांकित चित्र बनाकर उनके कार्यों का वर्णन कीजिए। (2013)
या मनुष्य के श्वसन तन्त्र की संरचना का वर्णन नामांकित चित्र बनाकर कीजिए। (2013)
उत्तर:
मनुष्य के श्वसनांग (श्वसन तन्त्र) –
मनुष्य में फुफ्फुसीय श्वसन तन्त्र (respiratory system) होता है; अतः प्रमुख श्वसनांग दो फेफड़े (lungs) होते हैं। इनकी वक्षीय पिंजर के अन्दर स्थिति के कारण अनेक सहायक अंग भी महत्त्वपूर्ण हैं, जो निम्नलिखित हैं –

1. नासिका एवं नासा मार्ग: (Nose and nasal passage) चेहरे पर स्थित नासिका (nose) बाहर दो बाह्य नासा छिद्रों (nostrils) के द्वारा खुलती है। नासा गुहा अन्दर की ओर एक नासा पट (nasal septum) के द्वारा दायें तथा बायें दो भागों में बँटी होती है। नासा गुहा अन्दर एक टेढ़े-मेढ़े, घुमावदार रास्ते में खुलती है।

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यह मार्ग टरबाइनल अस्थियों से बना होता है और श्लेष्मिक झिल्ली (mucous membrane) से ढका रहता है। नासा मार्ग में इसी कारण एक चिकना, पतला, तरल श्लेष्मक झिल्ली से स्रावित होता रहता है। नासा मार्ग मुख गुहा के ऊपर उपस्थित तालू (कठोर व मुलायम) के ऊपर स्थित होता है तथा काफी भीतर ग्रसनी (pharynx) में खुलता है।

2. कण्ठ या स्वर यन्त्र: (Larynx) ग्रसनी के भीतरी भाग में, निगल द्वार से पहले एक छिद्र होता है। इसे घाँटी, कण्ठ द्वार या ग्लॉटिस (glottis) कहते हैं। इसको ढकते हुए उपास्थि का बना एक घाँटी ढापन (epiglottis) होता है जो भोजन निगलते समय घाँटी को बन्द कर देता है।

3. श्वास नाल: (Trachea) घाँटी द्वार से सम्बन्धित इसके पीछे गर्दन में सामने की ओर स्थित यह 10-11 सेमी लम्बी 1.5-2 सेमी व्यास की नली होती है। सीने में पहुँचकर यह दो छोटी नलिकाओं में बँट जाती है जिन्हें श्वसनियाँ (bronchi) कहते हैं। प्रत्येक श्वसनी (bronchus) अपनी ओर के फेफड़े में चली जाती है और विभिन्न शाखाओं-दर-शाखाओं में बँट जाती है। श्वास नली की भित्ति में 16 से 20 तक उपास्थियों के अधूरे छल्ले होते हैं। ये छल्ले ‘C’ के आकार के तथा पीछे की ओर अधूरे होते हैं। ऐसे छल्ले श्वसनियों में भी होते हैं। सम्पूर्ण नलियों में भीतर श्लेष्मिक कला होती है, जो श्लेष्मक उत्पन्न करती है।
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4. फेफड़े या फुफ्फुस: (Lungs) संख्या में दो फेफड़े हमारे प्रधान श्वसनांग हैं। ये वक्ष गुहा (thoracic cavity) में हृदय के इधर-उधर स्थित, गहरे कत्थई-सलेटी रंग के, अत्यन्त कोमल तथा लचीले अंग हैं। प्रत्येक फेफड़े के चारों ओर पतली एवं दोहरी झिल्ली से बनी एक फुफ्फुस गुहा (pleural cavity) होती है। इसमें एक लसदार तरल भरा रहता है।

झिल्लियों को फुफ्फुसावरण (pleura) कहा जाता है। यह गुहा तथा इसका तरल फेफड़ों की सुरक्षा करते हैं। वक्ष गुहा में इन दोनों फेफड़ों और उनकी गुहाओं के मध्य केवल एक सँकरा स्थान होता है जिसमें श्वास नाल, श्वसनियाँ, ग्रास नली, हृदय आदि अंग रहते हैं।

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5. तन्तु पट, वक्षीय कटहरा तथा अन्य पेशियाँ:  वक्षीय गुहा के नीचे उदर गुहा से अलग करने वाला तन्तु पट (diaphragm) ऊपर-नीचे होकर वक्षीय गुहा को घटाता-बढ़ाता रहता है और श्वास लेने की क्रिया में सहायता करता है। वक्षीय कटहरा वक्षगुहा को बनाता है। यह मुख्य रूप से पीठ की ओर कशेरुक दण्ड (vertebral column), सामने की ओर स्टर्नम (sternum) तथा सामने से पीठ तक स्थित पसलियों (ribs) से बनता है। पसलियों के बीच-बीच में कुछ विशेष मांसपेशियाँ होती हैं जो पसलियों का स्थान बदलकर वक्षीय गुहा को घटाती-बढ़ाती हैं और साँस लेने की क्रिया में सहायता करती हैं।

प्रश्न 6.
मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना एवं क्रिया-विधि का वर्णन कीजिए। (2011, 12, 13)
या मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना का चित्रों की सहायता से वर्णन कीजिए। (2013, 17)
या मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना का स्वच्छ नामांकित चित्र बनाइए। (2016)
उत्तर:
मनुष्य के हृदय की आन्तरिक संरचना –
मनुष्य का हृदय एक कोमल पेशीय अंग है, जो वक्ष गुहा में डायाफ्राम के ऊपर दोनों फेफड़ों के बीच कुछ बायीं ओर स्थित होता है। यह दोहरी भित्ति की झिल्लीनुमा थैली हृदयावरण या पेरीकार्डियम (pericardium) में बन्द रहता है। दोनों झिल्लियों के मध्य तथा हृदय व हृदयावरण के मध्य हृदयावरणी द्रव (pericardial fluid) भरा रहता है, जो हृदय की बाह्य धक्कों से रक्षा करता है। हृदय हृदयक (cardiac) मांसपेशियों का बना होता है।
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मनुष्य के हृदय में चार वेश्म (4 chambers) होते हैं। ऊपरी चौड़े भाग के दोनों वेश्म बायाँ व दायाँ अलिन्द (auricles) तथा निचले नुकीले भाग के दोनों वेश्म दायाँ व बायाँ निलय (ventricles) कहलाते हैं। अलिन्दों की भित्तियाँ पतली और निलयों की भित्ति मोटी और अधिक पेशीय होती हैं। दोनों, दायें एवं बायें अलिन्दों को बाँटने वाले अन्तराअलिन्दीय पट (inter-atrial septum) के पश्च भाग पर दाहिनी ओर एक छोटा-सा अण्डाकार गड्ढा होता है जिसे फोसा ओवैलिस (fossa ovalis) कहते हैं।

भ्रूणावस्था में इसी स्थान पर फोरामेन ओवैलिस (foramen ovalis) नामक छिद्र होता है। अलिन्द की दीवार का भीतरी स्तर अधिकांश भाग में सपाट (smooth) होता है, केवल कुछ भागों में इससे लगी हुई अनेक पेशीय पट्टियाँ गुहा में उभरी रहती हैं जिन्हें कंघाकार पेशियाँ (musculi pectinati) कहते हैं। दाहिने अलिन्द में दो मोटी महाशिरायें अलग-अलग छिद्रों द्वारा खुलती हैं, जिन्हें निम्न महाशिरा (inferior vena cava) तथा उपरि महाशिरा (superior vena cava) कहते हैं। उपरि महाशिरा का छिद्र इस अलिन्द के ऊपरी भाग में तथा निम्न महाशिरा का निचले भाग में होता है।

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हृदय की दीवार से अशुद्ध रुधिर अलिन्द में लाने के लिए बायें भाग में अन्तराअलिन्दीय पट के पास कोरोनरी साइनस (coronary sinus) का छिद्र होता है। फेफड़ों से शुद्ध रुधिर लाने वाली फुफ्फुसी शिरायें (pulmonary veins) बायें अलिन्द में खुलती हैं। निलय (ventricle) की भित्तियाँ अलिन्द की भित्तियों से अधिक मोटी और मांसल होती हैं, जबकि बायें निलय की भित्ति तो दाहिने निलय की भित्ति से भी मोटी होती है। दाहिने अलिन्द की गुहा बायें अलिन्द की गुहा की अपेक्षा बड़ी होती है। दोनों निलयों को अलग करने वाला तिरछा अनुलम्ब पट होता है जिसे अन्तरानिलय पट (interventricular septum) कहते हैं।

एक-एक बड़े अलिन्द-निलय छिद्र (atrioventricular apertures) द्वारा प्रत्येक अलिन्द अपनी ओर के निलय में खुलता है। प्रत्येक अलिन्द निलय छिद्र पर नियमन हेतु एक झिल्ली के समान कपाट होता है। दाहिना अलिन्द-निलय कपाट तीन चपटे एवं त्रिकोणाकार पालियों (flaps) का बना होता है, इसे त्रिवलनी या ट्राइकस्पिड कपाट (tricuspid valve) कहते हैं। बायाँ अलिन्द-निलय कपाट केवल दो, अधिक बड़ी तथा अधिक मोटी पालियों का बना होता है। इसे द्विवलनी या बाइकस्पिड कपाट (bicuspid valve) कहते हैं।

कपाट, कण्डराओं (tendons) या हृद् रज्जुओं (chordae tendinae) द्वारा निलय की दीवार पर स्थित मोटे पेशी स्तम्भों (columnae carnae or papillary muscles) से जुड़े रहते हैं। कपाट रुधिर को अलिन्दों से निलयों में जाने का मार्ग देते हैं, किन्तु विपरीत दिशा में नहीं जाने देते। दाहिने निलय के अग्र भाग के बायें कोने से पल्मोनरी महाधमनी (pulmonary aorta) तथा बायें निलय के अग्र भाग के दाहिने कोने से कैरोटिको-सिस्टेमिक महाधमनी (carotico-systemic aorta) चापों (arches) के रूप में निकलती हैं। दोनों चापों के गोलाकार छिद्रों पर तीन-तीन छोटे जेबनुमा (pocket-shaped) अर्द्धचन्द्राकार कपाट (semilunar valves) होते हैं, जो रुधिर को निलयों से चापों में ही जाने का मार्ग देते हैं, चापों से वापस निलयों में नहीं आने देते।

दाहिने निलय से निकलकर पल्मोनरी चाप बायीं ओर घूमकर कैरोटिको-सिस्टेमिक चाप के नीचे फेफड़ों में जाने वाली दो पल्मोनरी धमनियों (pulmonary arteries) में बँट जाता है। कैरोटिको-सिस्टेमिक चाप बायें निलय से निकलकर पल्मोनरी चाप के ऊपर से होता हुआ बायीं ओर घूमकर धमनियों में बँट जाता है।

जहाँ दोनों चाप एक-दूसरे के ऊपर से निकलते हैं, एक लिगामेण्ट आरटीरिओसम (ligament arteriosum) नामक ठोस स्नायु (ligament) होता है। भ्रूणावस्था में इस स्नायु के स्थान पर डक्टस आरटीरिओसस या बोटैलाई (ductus arteriosus or botalli) नामक एक महीन धमनी होती है। हृदय की भित्ति के कुछ भागों में सघन तन्तुमय संयोजी ऊतक के छल्ले होते हैं। ये दीवार को सहारा देते हैं, कक्षों को आवश्यकता से अधिक फूलने से रोकते हैं और अनेक हृद् पेशियों को जुड़ने का स्थान देते हैं। अत: इन्हें हृदय का कंकाल कहा जाता है।

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हृदय की कार्य विधि:
हृदय पम्प की तरह कार्य करता है। यह रुधिर को ग्रहण करता है और उसे दबाव के साथ अंगों की
ओर भेज देता है। यह नियमित रूप से, लगातार तथा जीवनपर्यन्त कार्य करता रहता है। एक सामान्य व्यक्ति का हृदय एक मिनट में 70-80 बार धड़कता है। हृदय के सिकड़ने की अवस्था को प्रकुंचन (systole) तथा फैलने की अवस्था को अनुशिथिलन (diastole) कहते हैं।

हृदय की दीवारें विशेष प्रकार की हृद् पेशियों (cardiac muscles) की बनी होती हैं जिनमें प्रकुंचन (systole) तथा अनुशिथिलन (diastole) के कारण एक लहर-सी बन जाती है। एक बार जब ये क्रियायें चालू होती हैं तो बिना रुके हुए मृत्यु के समय तक चलती रहती हैं। अलिन्दों के बाद निलय सिकुड़ते हैं तथा निलय के बाद अलिन्द। इसके बाद फिर निलय सिकुड़ते हैं और इसी तरह दोनों अपनी-अपनी बारी पर फैलते-सिकुड़ते रहते हैं।

हृदय के निलय की कार्डियक पेशियों के शक्तिशाली क्रमिक संकुचनों या एक-बार फैलने व सिकुड़ने की क्रिया से एक हृदय स्पन्दन (heart beat) बनता है अर्थात् प्रत्येक हृदय स्पन्दन में कार्डियक पेशियों का एक बार प्रकुंचन या सिस्टोल (systole) तथा एक बार अनुशिथिलन या डाएस्टोल (diastole) होता है। मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72-75 बार स्पन्दित होता है।

यह हृदय स्पन्दन की दर (rate of heart beat) कहलाती है। शरीर के सभी अंगों में भ्रमण करने के बाद अशुद्ध रुधिर उपरि तथा निम्न महाशिराओं (pre and post cavals) द्वारा दाहिने अलिन्द में आता है। इसी प्रकार से फेफड़ों द्वारा शुद्ध किया गया रुधिर बायें अलिन्द में आता है। दोनों अलिन्दों में रुधिर भर जाने के बाद इसमें एक साथ संकुचन होता है जिससे इनका रुधिर अलिन्द-निलय छिद्रों द्वारा अपनी ओर के दोनों निलयों में भर जाता है। निलयों में रुधिर भर जाने पर फिर इन दोनों निलयों में संकुचन होता है।

फलत: दाहिने निलय का अशुद्ध रुधिर पल्मोनरी महाधमनी (pulmonary aorta) द्वारा फेफड़ों में जाता है, जबकि बायें निलय का शुद्ध रुधिर कैरोटिको-सिस्टेमिक महाधमनी (carotico-systemic aorta) द्वारा समस्त शरीर में जाता है। यही महाधमनी कशेरुक दण्ड के नीचे पृष्ठ महाधमनी (dorsal aorta) बनाती है। निलयों का संकुचन जैसे ही समाप्त होता है, वैसे ही अलिन्दों में पुन: संकुचन प्रारम्भ होने लगता है। इस प्रकार हृदय रुधिर का बहाव बनाये रखता है। हृदय में प्रकुंचन तथा अनुशिथिलन की ये क्रियायें आजीवन एक के बाद एक, लगातार तथा एक लय में होती रहती है।

Bihar Board Class 10 Science Solutions Chapter 6 जैव प्रक्रम

प्रश्न 7.
रुधिर परिवहन को परिभाषित कीजिए। खुला, बन्द तथा दोहरा रुधिर परिवहन तन्त्र को समझाइए। (2017)
या मनुष्य में दोहरे रक्त परिसंचरण को आरेखित चित्र द्वारा दर्शाइए। (2014)
उत्तर:
ग्रहण किए गये पदार्थों को शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाने तथा वहाँ पर उत्पन्न अतिरिक्त पदार्थों (CO2 तथा NH3) को निश्चित स्थान तक पहुँचाने की क्रिया को संवहन या परिवहन कहते हैं। केवल लाभदायक पदार्थों का ही संवहन नहीं होता, बल्कि अपशिष्ट पदार्थों को भी शरीर में ऐसे स्थान पर पहुँचाया जाता है जहाँ से उन्हें बाहर निकाला जा सके। जिस परिवहन तन्त्र में संवहन माध्यम रुधिर होता है, उसे रुधिर परिवहन तन्त्र कहते हैं।

खुला व बंद परिवहन तंत्र:
कुछ अकशेरुकी जन्तुओं जैसे आर्थोपोड्स एवं मौलस्क में रुधिर मुख्य रुधिर वाहिनियों से निकलकर पूरी देहगुहा में भर जाता है और दैहिक अंगों की कोशिकओं के सीधे सम्पर्क में रहता है। इस प्रकार के परिवहन तंत्र को खुला परिवहन तंत्र कहते हैं। इस प्रकार के परिवहन तंत्र में रुधिर केशिकाएँ, लिम्फ व ऊतक द्रव नहीं होता है।

सभी कॉडेंट्स में रुधिर सदैव बंद वाहिनियों में बहता है। वह ऊतक कोशिकओं के सीधे सम्पर्क में नहीं आता। रुधिर हृदय से धमनियों व धमनियों से धमनी केशिकाओं में पहुँचता है। धमनी केशिकाओं से रुधिर शिरा केशिकाओं में पहुँचता है जिनसे शिराओं और शिराओं से पुनः हृदय में वापस लौट आता है। इसे बंद रुधिर परिवहन तंत्र कहते हैं।

दोहरा परिवहन तन्त्र मनुष्य में रुधिर परिवहन में दो परिवहन पथ होते हैं –
1. फुफ्फुसी या पल्मोनरी परिवहन:
इस परिवहन पथ में दाहिने निलय के संकुचन से उसमें भरा अशुद्ध रुधिर फुफ्फुस धमनियों द्वारा फेफड़ों में शुद्धीकरण के लिए पहुंचता है। फेफड़ों से शुद्ध रुधिर एक जोड़ी फुफ्फुस शिराओं द्वारा बाएँ अलिन्द में पहुँचता है।
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2. दैहिक या सिस्टेमिक परिवहन:
इस परिवहन पथ में बाएँ निलय के संकुचन से शुद्ध रुधिर दैहिक महाधमनी में से होता हुआ धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचता है और शिराओं द्वारा एकत्रित अशुद्ध रुधिर अग्र एवं पश्च महाशिराओं द्वारा हृदय के दाहिने अलिन्द में पहुँचता है। इस प्रकार मानव में रुधिर दो बार हृदय से गुजरता है।

प्रश्न 8.
उत्सर्जन से क्या तात्पर्य है। मनुष्य के उत्सर्जी अंगों के नाम लिखिए। मनुष्य के वृक्क की संरचना तथा कार्य-विधि को सचित्र समझाइए। (2010, 11, 12, 13, 15, 18)
या उत्सर्जन किसे कहते हैं ? मनुष्य में वृक्क की संरचना व नामांकित चित्र की सहायता से उत्सर्जन को समझाइए। (2011, 18)
या मनुष्य के उत्सर्जन तन्त्र का नामांकित चित्र बनाइए। (2018)
या मनुष्य की वृक्क नलिका संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए। (2010, 15)
या मानव वृक्क की खड़ी काट का नामांकित चित्र बनाएँ। (2016, 18)
या मनुष्यों में वृक्क के दो प्रमुख कार्य बताइए। (2016, 17)
उत्तर:
उत्सर्जन:
शरीर में विभिन्न उपापचयी क्रियाओं में अनेक अपशिष्ट या वर्ण्य पदार्थ बनते हैं। इनका शरीर में कोई उपयोग नहीं होता। कभी-कभी तो ये अत्यधिक विषैले भी हो सकते हैं। विषैले न होने पर भी अपशिष्ट पदार्थ कोशिकाओं में संचित नहीं किये जा सकते, अत: उनको शरीर से बाहर निकालना ही आवश्यक होता है। अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना ही उत्सर्जन (excretion) कहलाता है। प्रमुख उत्सर्जी अंग मानव शरीर में प्रमुख उत्सर्जी अंग एक जोड़ी वृक्क (kidneys) होते हैं। वृक्कों के अतिरिक्त मनुष्य में यकृत, त्वचा, फेफड़े और आंत भी उत्सर्जन में मदद करते हैं।

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मनुष्य के वृक्क की संरचना:
मानव शरीर में वृक्क (kidneys) मुख्य उत्सर्जी अंग होते हैं। इनका कार्य रुधिर से यूरिया व यूरिक अम्ल आदि उत्सर्जी पदार्थों को छानकर अलग करना तथा उन्हें मूत्र (urine) के रूप में शरीर से बाहर निकालना है। मनुष्य में एक जोड़ी वृक्क, सेम के बीज की आकृति वाले होते हैं। ये उदरगुहा में कशेरुक दण्ड के दोनों ओर (दायें व बायें) स्थित होते हैं।

बायाँ वृक्क दायें वृक्क से कुछ नीचे (पश्च) स्थित होता है। प्रत्येक वृक्क का अन्दर का किनारा मध्य में धंसा हुआ होता है। इसे नाभि (hilum) कहते हैं। बाहरी किनारा उभरा या उत्तल होता है। प्रत्येक वृक्क लगभग 10 सेमी लम्बा, 6 सेमी चौड़ा और 2.5 सेमी मोटा होता है। पुरुष के वृक्क का भार लगभग 150 ग्राम, किन्तु स्त्री में कम होता है। वृक्क के ऊपर अधिवृक्क ग्रन्थि पायी जाती है।
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आन्तरिक संरचना में वृक्क दो स्पष्ट भागों में बँटा होता है-बाहरी गहरे रंग का कॉर्टेक्स (cortex) तथा भीतरी हल्के रंग का मेड्यूला (medulla) वृक्क का मध्य भाग खोखला (hollow) होता है। यह भाग क्रमशः सँकरा होकर भीतरी किनारे पर अधिक सँकरा होकर शीर्षगुहा या श्रोणि (pelvis) बनाता है। मेड्यूला कुछ शंक्वाकार पिरामिड जैसे उभारों में श्रोणि की ओर उभरा रहता है। श्रोणि से ही मूत्रवाहिनी (ureter) निकलती है।

वृक्क में अनगिनत वृक्क नलिकायें या नेफ्रॉन्स (uriniferous tubules or nephrons) होती हैं। प्रत्येक नलिका के सिरे पर एक ग्रन्थि के समान भाग होता है, इसको मैलपीघी कणिका (malpighian corpuscle) कहते हैं। मैलपीघी कणिका में भी दो भाग होते हैं: अन्दर केशिकाओं का जाल, केशिकागुच्छ या ग्लोमेरूलस (glomerulus) तथा बाहर एक कप जैसा बोमेन्स सम्पुट (Bowman’s capsule)।
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इसके बाद नलिका को कई भागों में बाँट सकते हैं; जैसे – समीपस्थ कुण्डलित नलिका, हेनले का लूप तथा दूरस्थ कुण्डलित नलिका। प्रत्येक नलिका के बोमेन सम्पुट में जो रुधिर केशिकाओं का जाल फैला रहता है, वह एक अभिवाही रुधिर केशिका से बनता है, बाद में, एक अपेक्षाकृत सँकरी अपवाही रुधिर केशिका सम्पुट से निकलने के पश्चात् नलिका के अन्य भागों पर जाल बनाती है। इन केशिकाओं में बहने वाले रुधिर से वृक्क नलिका में मूत्र छनता है। दूरस्थ कुण्डलित नलिकायें संग्रह नलिका में खुलती हैं और कई संग्रह नलिकायें मिलकर मोटी संग्रह नलिका में खुलती हैं, जो श्रोणि या पेल्विस में खुलती है; यहीं से मूत्रवाहिनी निकलती है।

वृक्क की क्रिया-विधि:
वृक्कों का प्रमुख कार्य शरीर के उत्सर्जी पदार्थों; जैसे – यूरिया, यूरिक अम्ल आदि को रुधिर से अलग कर मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालना है। इसके अतिरिक्त वृक्क रुधिर में उपस्थित अतिरिक्त जल व लवणों को भी शरीर से निकालकर जल सन्तुलन और लवण सन्तुलन को बनाये रखते हैं। वृक्क नलिका की मैलपीघी कणिका में उपस्थित केशिकाओं के जाल, केशिकागुच्छ में एक अपेक्षाकृत चौड़ी रुधिर वाहिनी से रुधिर प्रवेश करता है।

केशिकाओं के जाल के बाद रुधिर को केशिकागुच्छ से बाहर लाने वाली रुधिर वाहिनी अपेक्षाकृत सँकरी होती है; अत: केशिकागुच्छ में जितना रुधिर प्रवेश करता है, उतना बाहर नहीं निकलता, जिसके फलस्वरूप यहाँ रुधिर का दाब बढ़ जाता है। इस अधिक दाब पर रुधिर कोशिकाओं व प्रोटीन को छोड़कर रुधिर का अधिकांश भाग केशिकागुच्छ की पतली भित्ति से छनकर सम्पुट में आ जाता है। इस छने हुए द्रव में अधिकांश जल तथा अन्य घुलनशील पदार्थ; जैसे यूरिया, यूरिक अम्ल, ग्लूकोज, अनेक लवण आदि होते हैं।

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छनने की इस क्रिया को अतिसूक्ष्म निस्यन्दन (ultrafiltration) कहते हैं। जब यह छना हुआ द्रव वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग में आगे बढ़ता है, तो उस भाग की रुधिर केशिकायें इसमें उपस्थित लाभप्रद पदार्थों; जैसे – ग्लूकोज, कुछ लवण, जल आदि को अवशोषित करके पुनः रुधिर में पहुंचा देती हैं। धीरे-धीरे वृक्क में यूरिया, यूरिक अम्ल, कुछ जल व अन्य हानिकारक लवण रह जाते हैं, यह मूत्र (urine) कहलाता है। मूत्र वृक्क नलिका से संग्राहक नलिकाओं में होता हुआ मूत्रवाहिनी में पहुँच जाता है। मूत्रवाहिनी द्वारा मूत्र, मूत्राशय में पहुँच जाता है और समय-समय पर मूत्रमार्ग से बाहर निकाल दिया जाता है।

प्रश्न 9.
वाष्पोत्सर्जन से आप क्या समझते हैं? इसका क्या महत्त्व है? (2012, 13, 14, 15, 16, 17, 18)
या वाष्पोत्सर्जन के चार प्रमुख महत्त्व बताइए। (2016)
उत्तर:
वाष्पोत्सर्जन:
(transpiration) वह क्रिया है जिसमें जीवित पौधे, अपने वायवीय भागों; जैसे पत्तियों, हरे प्ररोह आदि के द्वारा आन्तरिक ऊतकों से अतिरिक्त पानी को वाष्प के रूप में बाहर निकालते हैं। वाष्पोत्सर्जन पौधे के सभी वायवीय भागों से होता है, परन्तु पौधे में पत्तियाँ वाष्पोत्सर्जन करने वाले महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ये अत्यधिक चौरस होती हैं और पौधे की वायवीय सतह का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनाती हैं। इन पर अधिक संख्या में पर्णरन्ध्र (stomata) दोनों सतहों पर वितरित रहते हैं।

वाष्पोत्सर्जन का महत्त्व:
वाष्पोत्सर्जन को ‘आवश्यक बुराई’ (necessary evil) कहा गया है, क्योंकि वाष्पोत्सर्जन के परिणामस्वरूप पौधों में जल की कमी हो जाती है; अत: विशेष (शुष्क) स्थानों के पौधे तो इसे रोकने के लिये भी अनेक उपाय करते हैं फिर भी यह पौधे के लिये अत्यन्त उपयोगी है। पौधे के लिये वाष्पोत्सर्जन के निम्नलिखित महत्त्व हैं –

1. अतिरिक्त जल का निस्तारण पौधे भूमि से लगातार अपने मूलरोमों द्वारा परासरण व अन्तःशोषण (osmosis and imbibition) के द्वारा जल का अवशोषण करते हैं। शरीर में आवश्यकता की अपेक्षा यह जल कई गुना अधिक होता है, अत: वाष्पोत्सर्जन द्वारा अनावश्यक तथा अतिरिक्त जल (excess water) पौधों के शरीर के बाहर निकलता रहता है।

2. खनिज लवणों की प्राप्ति वाष्पोत्सर्जन तथा जल के अवशोषण (absorption) में एक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। पौधे द्वारा जितना अधिक वाष्पोत्सर्जन होता है उतना ही अधिक भूमि से जल का अवशोषण होता है। मृदा जल में खनिज लवणों की मात्रा बहुत ही कम होती है अत: पौधों के द्वारा जितना अधिक जल का अवशोषण होता है उतने ही अधिक खनिज लवण (mineral salts) इसमें घुलकर पौधे के शरीर में पहुँचते रहते हैं। अधिक वाष्पोत्सर्जन से रिक्तिका रस में परासरण दाब बढ़ जाता है, इस प्रकार और अधिक लवण पादप शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।

3. वाष्पोत्सर्जन कर्षण तथा रसारोहण वाष्पोत्सर्जन के द्वारा चूषण बल (suction pressure) उत्पन्न होता है जो रसारोहण (ascent of sap) के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इससे जल बड़े-बड़े वृक्षों में भी उनकी अत्यधिक ऊँचाई तक पहुँच जाता है।

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4. ताप का नियमन वाष्पोत्सर्जन के कारण ही पौधे झुलसने से बच जाते हैं, क्योंकि जल की वाष्प बनने के कारण ठण्डक पैदा होती है। इस प्रकार गुप्त ऊष्मा के वाष्प में चले जाने के कारण उसका उपयोग पौधा ताप से बचने में करता है।

5. जल का समान वितरण वाष्पोत्सर्जन द्वारा पौधों के सभी भागों में पानी का वितरण (distribution) समान रूप से हो जाता है।

6. फलों में शर्करा की सान्द्रता अधिक वाष्पोत्सर्जन के कारण फलों में शर्करा की सान्द्रता बढ़ जाती है जिससे फल अधिक मीठे हो जाते हैं।

7. यान्त्रिक ऊतकों व आवरण का निर्माण अधिक वाष्पोत्सर्जन से पौधों में अधिक यान्त्रिक ऊतकों की वृद्धि होती है जिसके कारण पौधे मजबूत होते हैं। ये ऊतक पौधे की जीवाणुओं, कवकों आदि से रक्षा भी करते हैं, विशेषकर बाहरी भागों पर बने उपचर्म (cuticle) आदि के आवरण से।

प्रश्न 10.
पौधों में वाष्पोत्सर्जन कितने प्रकार से होता है? रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन क्रिया-विधि का सचित्र वर्णन कीजिए। (2017)
या वाष्पोत्सर्जन की क्रिया में स्टोमेटा की क्या भूमिका है? चित्र द्वारा समझाइए। (2016)
या नामांकित चित्र की सहायता से पर्णरन्ध्रों (Stomata) के खुलने तथा बन्द होने की क्रिया-विधि का वर्णन कीजिए। (2012, 16)
या रन्ध्र (स्टोमेटा) का स्वच्छ एवं नामांकित चित्र बनाइए। (2013)
या रन्ध्र की रचना तथा कार्य का सचित्र वर्णन कीजिए। पौधों में इनकी क्या उपयोगिता है? (2014, 18)
या रन्ध्र का नामांकित चित्र बनाइए तथा द्वार (गार्ड) कोशिकाओं का वर्णन कीजिए। (2015)
उत्तर:
पौधों में वाष्पोत्सर्जन मुख्यत: तीन प्रकार से होता है –
1. रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन
2. उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन
3. वातरन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन।

रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन:
मूलरोमों द्वारा अवशोषित जल जाइलम द्वारा पत्तियों तक पहुँचता है। जाइलम वाहिकाओं (vessels) तथा वाहिनिकाओं (tracheids) द्वारा जल स्फीति दाब के कारण पत्ती की पर्णमध्यक कोशिकाओं (mesophyll cells) में पहुंचता है। पर्णमध्यक कोशिकाओं के मध्य अन्तराकोशीय स्थान (inercellular spaces) होते हैं। पर्णमध्यक कोशिकाओं से जल वाष्पीकरण के फलस्वरूप जलवाष्प में बदलकर अन्तराकोशीय स्थानों में आ जाता है। जलवाष्प सामान्य विसरण द्वारा रन्ध्रों से वातावरण में चली जाती है। वाष्पोत्सर्जन की दर रन्ध्रों के खुलने तथा बन्द होने पर निर्भर करती है।

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पर्णरन्ध्र के खुलने-बन्द होने की क्रिया-विधि:
पर्णरन्ध्र का निर्माण दो विशेष आकार-प्रकार की द्वार कोशिकाओं (guard cells) के द्वारा होता है। इन्हीं कोशिकाओं की स्फीति के कारण आकार में परिवर्तन पर रन्ध्र का छोटा या बड़ा होना निर्भर करता है। जब ये कोशिकाएँ स्फीत (turgid) होती हैं तो रन्ध्र खुला रहता है और जब श्लथ (flaccid) होती हैं तो रन्ध्र बन्द हो जाता है। द्वार कोशिकाओं की स्फीति (turgidity) में परिवर्तन उनके परासरण दाब (osmotic pressure) में परिवर्तन पर निर्भर करता है।

परासरण दाब बढ़ने पर आस-पास की सहायक कोशिकाओं (subsidiary cells) से परासरण की क्रिया के द्वारा पानी आ जाता है और द्वार कोशिकाएँ स्फीत हो जाती हैं; अत: भीतरी मोटी भित्ति, बाहरी भित्ति के बाहर की ओर फूलने के कारण, द्वार कोशिका के अन्दर ही घुस जाती है, फलत: रन्ध्र खुल जाता है। परासरण दाब घटने पर द्वार कोशिकाओं से जल पड़ोसी कोशिकाओं में चले जाने के कारण ये श्लथ हो जाती हैं और रन्ध्र बन्द हो जाते हैं।
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उपयोगिता:
रन्ध्रों द्वारा जलवाष्प विसरण द्वारा वायुमण्डल में चली जाती है। लगभग 90% वाष्पोत्सर्जन रन्ध्रों द्वारा ही होता है।

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